Book Title: Jain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Author(s): Deviprasad Mishra
Publisher: Hindusthani Academy Ilahabad

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Page 11
________________ पुरोवाक् जिस साहित्य- सन्दोह में भारतीय संस्कृति के अंग- उपांगों का बिम्बन एवं प्रतिबिम्बन हुआ है, उसमें पौराणिक वाङ्मय का स्थान महत्त्वपूर्ण है । पौराणिक वाङमय के भी दो पक्ष हैं - एक तो क्रियात्मक पक्ष और दूसरा प्रतिक्रियात्मक पक्ष | क्रियात्मक पक्ष के प्रतिफल पारम्परिक पुराण हैं, जिन्हें वस्तुतः पुराण की आख्या प्रदान की जा सकती है; तथा प्रतिक्रियात्मक पक्ष की प्रसूति हैं जैन पुराण, जिन्हें जैन सन्तों ने वस्तुतः पारम्परिक पुराणों की अनुकृति में संवारा है । संकलन की दृष्टि से देखा जाय तो जैन पुराणों के सन्दर्भ में दो स्तर बनते हैं; एक तो परम्परा का स्तर जिसे किसी कालावधि में आबद्ध करना सुकर नहीं है, दूसरे प्रणयन का स्तर जिसे गुप्तोत्तर काल से सम्बन्धित करने में कोई हानि नहीं दिखाई देती है । जैन मुनियों ने अपनी रचनाओं को पुराण नाम देकर अतीत कालीन वृत्तों एवं प्रवृत्तियों को नवोदित मान्यताओं के साथ समायोजित करने का प्रयास किया है । इसके परिणाम में जैन पुराण भारतीय संस्कृति का एक ऐसा कलेवर प्रस्तुत करते हैं, जो एक ओर यदि जैन परम्परा का स्पर्श करता है तो दूसरी ओर उसके माध्यम से संस्कृति के सार्वजनीन स्वरूप का भी आकलन किया जा सकता है । यह एक सुखद संयोग का विषय है कि संख्यातीत जैन धर्म को सन्निबद्ध करने वाली पाण्डुलिपियाँ जैन भण्डारों में सुरक्षित रहीं तथा सम्बन्धित संरक्षकों ने ' इनके सन्निकर्ष में केवल आधिकारिक एवं सुपात्र साहित्यिक समालोचकों एवं जिज्ञासुओं को आने दिया । विद्वत्समाज के समक्ष इनके प्रणिधान का मूल श्रेय जिन पूर्वसूरियों को दिया जा सकता है, उनमें विलसन, टेलन, बूलर, राजेन्द्रलाल मित्र, याकोबी, बर्नल, हुल्श, आर० जी० भण्डारकर, कीलहार्न, वेबर इत्यादि को विशेषतया सन्दर्भित किया जा सकता है। इसमें सन्देह नहीं है कि सम्प्रति जैन धर्म को गौरवान्वित करने वाली प्रचुर संख्या में पाण्डुलिपियाँ कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के भण्डारों में संगृहीत हैं तथा इनका आलोचनात्मक प्रकाशन सातिशय वाञ्छनीय है । यद्यपि प्राच्य विद्यानुसन्धान में जैन संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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