Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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पगपगें वरपात्र नाचते; इम माहा उंबरे प्रभुजी आव्या, सिंहासन पंडिते मंडाव्यां ॥६॥ पाठकनें आभुषण आपें, पंड्यानां दारिद्र दूरे का; निशिलीया कहे छटी अपावो, प्रभु तुमनें जय मंगल थावो ॥ ७॥ इंद्रासन इंद्रनो थरहर चलीयो, अवधि ज्ञानशुं हरिमन भलीयो; तोरण आंबे बांध्यु नवि छाजे, एतो अचरज वात हुइ आजे ॥८॥ एह चिंतविरूप करे विप्र, पंडित स्थानें प्रभुजीने खिप्र; पंडित मनहरि संदेह पूछे, टाल्यां संदेह सहुनां मन तुठे ॥ ९॥ हरी कहे सांभल विष सयाणी, बालक नहिं एछे शुद्ध नाणी; देवाधिदेवे उपदेश तस दी, जिनेंद्र व्याकरण प्रभुजी ए कीधुं ॥ १० ॥ प्रणिपत्य करी हरी ठामे पहोता, ॥ भगवंतपण परिवारे सोहंता; नितनीत नवनवी क्रिडा करंता, मात पिता देखी हरख धरंता ॥ ११॥ एणी पेरें निशालगरणुं करशे, आवतां दुष्ट करममल हलसें; मोह महा मद कुमति गलसे, सेवतां शिव सुख भवि मलशें ॥ १२ ॥
॥ इति श्री निशाल गरगुं संपूर्णम् ॥ दूहा बालपणुं प्रभु निर्गम्युं, वर्ष सहस्स पणवीस; भोग समरथ थयां जाणिनें, चिंतित माय |
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