Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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शांतिना-दिधी देशना, गुण हीत नाम तस शांति हो भ० जन्म॥ १६॥ “इति अढीसें अभिषेकमहोत्सव समाप्तम्” पंच क० थना. _दूहा-चंद वदन नीत उल्लसियो, दंत दाढिम समजाण; भुज भुंगल गजगति वली, श्वास | स्तवन.
कमल परिमाण ॥१॥आठ वरसनां जब हुआ, कुमरपणे भगवंत, शुभ लग्ने शुभ मुहर्त दिनें, पंडित घर ठवंत॥२॥अनध्ययनें ध्ययन सदा, नीर्द्रव्ये द्रव्य हुंत; अण भुषणे भुषण तदा, सो परमेश्वर संत॥३॥ ___ ढाल-विवाह लानी देशी-हवे प्रभु हस्ती उपर जब चढीयां, मेघाडंबर अंबरे अडीआं; शुभ
लग्न लेइ मायनें बा, गुण निधीनें नीसाले थापें ॥१॥ पंडीत वरदान देवा सारूं, विविध प्रकारना शलेइ दीदार; मणि माणीक भूषणादिक चीरा, सवि लीएं तस वडनर धीरा ॥ २ ॥ निशालिया अर्थे || सिंघोडां खजुर, चारोली द्राक्ष श्रीफल प्रचूर; धाणि चणा सोपारि सुखडीयां, पाटी लेखण बरतणां खडिया ॥३॥ अनेक लेइ उपगरण भलेरां, स्नान मजन करे प्रभु केरां; बावन्ना चंदन चर्चे सुहालां,
अलंकार पहेरावे सुकुमालां ॥ ४॥ सोवन विंटि कुंडल नवहारा, पंच वर्णनी माला सहकारा; आत४पत्र शीर सोहें चिहुं पासा, ढलकता चमर अमर उल्लासा ॥ ५॥ रमणीय अनेक वाजींत्र वाजते,
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