Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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शांतिन थना.
ASTERSHASTROAD
प्रणमें ललि लली लच्छाहो स० जि० ॥३॥ सूतिकागृह तिन ईशान कुणे, प्रेरित पवन प्रचार ॥
र " पंच क. पूहवी शुद्ध जोयण एक कीधि, स्तवति जिन गुण सार हो स० जि०॥ ४॥ मेघंकरा मेघवती सु. न. मेघा, मेघमालिनी तोयधारा ॥ बलाहीक वारिषेण विचित्रा, दया गुणना भंडार हो स० जि०॥५॥ ऊर्ध्वलोकथी आठ ए देवी, वृष्टि करे आणंदा ॥ फुल मणी माणेक सोनैया, स्तवती उभी जिणंदा ४ हो स० जि० ॥६॥ नंदी उत्तरा नंदी आनंदी, नंदी वर्द्धनि विजैया ॥ विजयति जयंती अपरा देवि, जिन गुणमें भिजैया हो स० जि०॥७॥ __ रुचक परवतथी सवि आवी, दर्पण लेइ स्थीर रहीया ॥ जिन मुखजोति भव दुःख खोति, 16 खमन अति गह गहीयाहो सजि०॥८॥समाहारा सुप्रदत्ता ए देवी, सुप्रबद्धा यशोधरा ॥ लक्ष्मीवति वलि शेषवती जे, चित्रगुप्ता वसुंधरा हो स० जि०॥९॥ ते दक्षिण रुचक परवतथी, सान अर्थे नीर -
टा ॥१॥ लावें ॥ कलशधरी भरी मन संवरी, उभी जिन गुण गावे हो स० जि०॥१०॥ इलासुराने पृथ्वी देवि, पद्मावति एक नासा ॥ भद्राशीतावली नवमिका, तुज दीठे फलि आसा हो सजि०॥११॥पश्चिम
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