Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown
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जैन-क्रियाकोष । जिन बस्तुनिकी है द्वे दाल,सोसो सब दधि मेला टालि ।। जानि निसाचर जे निसि अरें, निसभोजन करि भव दुख करें। ताते निसिभोजन तजि भया, जो चाहे जिनमारग लया । दोय महूरत दिन जब रहै, तबतें चउविहार बुध गहै। मौलौं जुगल महरत दिना, चढि है तौलौं अनसन गिना ।। रात-बसौं अर रातहिं कियो,रात-पिस्यौ कबहूं नहिं लियौ । अहा होय अंधेरो बीर, तहा दिवसहू असन न बीर ॥ दृष्टि देखि भोजन करि शुद्ध, दृष्टि देखि पग धरहु प्रबुद्ध, बहुबीजा जामें कण घणा, ते फल कुफल जिनेसुर भणा ।। प्रगट निजारा आदिक जेह, बहुबीजा त्यागौ सब तेह । बेंगण जाति सकल अघखानि, त्याग करौ जिन आज्ञा मानि १००॥ संधाणा दोषीक विसेस, सो भन्या छाडौ जु असेस । ताके भेद सुनो मनलाय, सुनि यामें उपजै अधिकाय ।। उत्थाणा संधाण मथाण, तीन जाति इनकी जुबखानि । राई लणी कलूजी आदि, अम्बादिकमें डारहिं बादि । नाखि तेलमे करहिं अथाण, या सम दोष न सूत्र प्रमाण । त्रसजीवा तामें उपजन्त, मखिया आमिष-दोष लहन्त ।। नीबू आम्रादिक जे फला, लूण माहि डारै नहिं भला । याको नाम होय संघाण, त्यागें पण्डित पुरुष सुजाण ॥ अथवा चलित रसा सब बस्त, संधाणा जाणो अप्रशस्त । बहुरि जलेबी आदिक जोहि, डोहा राव मथाणा होय ।। लण छाछि माहीं फल डारि, केर्यादिक जे खाहि संचारि। तेहि बिगारे जन्म सुकीय, जैसे पापी मदिरा पीय ।।

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