Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 07
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 477
________________ पृथ्वीचं अने गुणसागरनुं चरित्र. ४६५ नशन व्रतने प्राप्त थया थका पोतानुं कांड पण वैयावञ्च न करावतां प चीश दिवसें काल करीने ते कुसुमकेतु मुनि, ज्यां कुसुमायुध मुनि तेत्रीश सागरोपमने रखे देवता थया ने, त्यां तेनी साथें देव थश्ने रह्या. ॥ श्लोक ॥ शमांजोधिमग्नौ सदाऽऽध्यात्मलग्नौ, वियोगे सुयुक्तौ सुसंतोषयु तौ ॥ त्रयस्त्रिंशतासागरैर्देवनावं, चरित्वा वरागण्यपुण्यस्वनावम् ॥१॥ गद्यं ॥नवसंजवानामनित्यतां झानतश्च पश्यंती तावदभुतसुखं नुत्का व्युत्वा सिदि लनिष्यतः ॥२॥ अर्थः-शमरूप सागरनेविषे मन, निरंतर अध्यात्म झानमां एटले चिदानंदमां लग्न, संसारना वियोगमां युक्त तथा कर्मना संयो गथी मुक्त, संतोष गुणथी युक्त एवा ते बेदु मुनि, शुद्ध चारित्रने पाली श्रेष्ठ अने अगणित पुण्यना स्वनाववाला अर्थात् अतुलपुण्य होवाथीज जे नव नी प्राप्ति थाय बे एवा देवनवने प्राप्त थया ॥१॥ अने तत्त्वज्ञानथकी आ संसारमा उत्पन्न थयेला सर्व पदार्थोनी अनित्यताने जोता एवा ते बेद देवो, ते लोकना अभुत सुखने नोगवी, त्यांथी ज्यवीने सिदिने एटले मोक्ने पा मशे॥ इति पृथ्वीचं गुणसागरचरित्रे कुसुमायुधनृप कुसुमकेतुपुत्रनववर्णन नामा दशमः सर्गः संपूर्णः ॥१॥ बाहिं शंख राजा बने कलावतीना नवथी मामीने पृथ्वीचं अने गुणसागरना वीश नव संपूर्ण थया ॥ २० ॥ ॥ अथैकादशसर्गस्य बालावबोधः प्रारच्यते॥ ॥ लोक ॥ जय अर्हन्मतांनोधि, गांजीर्येणानिशोनितः॥ गृहीत्वा शील रत्नानि, संतः स्युःसुखिनो यतः॥१॥ अर्थः-जे अर्हन्मतरूप रत्नाकरमाथी शीलरूप रत्नोने ग्रहण करीने सुझ पुरुषो सुखी थाय , तो ते गांनार्यगुणोथी सुशोजित एवो अर्हन्मतरूप अंनोधि, सर्वोत्कृष्टपणे वतॊ. हवे ते देवता थयेलो कुसुमायुधनो जीव, एकवीशमे नवे क्या अवतस्यो ? ते कहे . के जंबुद्दीपना नरतदेवने विषे वैताढयथकी दक्षिण जरताईनामा खंगने विषे लक्ष्मीथी मनोहर एवा कोशलनामा देशने विषे सुपात्रदान. सन्मान, गीत, नृत्य, तेना अनेक जेदोथी, स्वर्गपुरीथी पण श्रेष्ठ अने श त्रुथी पण जेनो पराजय थ शके नहिं, एवी एक अयोध्यानामा नगरी जे. जेनी रचना, पहेला आदिनाथ जगवानना राज्यनी वखतें इंश्ना कहेवा थी देवतायें करेली . ते अयोध्यानामा नगरीनु, अरिरूप करीना विदार

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