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षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. ३०३ बुधिरूपलब्धिनिमित्यनर्थान्तरमिति ॥एहनो नेद खिन्न थको तुं शुं करे ? समो अर्थ ज्ञान मान्य ॥ ७६ ॥
॥बुदि नित्य तो पुरुषज तेह, झानप्रवृत्ति वा सम गेह ॥ जो अनि त्य तो किहां वासना, प्रकृति तो शी बुद्धिसाधना ॥ ७॥ अर्थः-बुद्धि तत्त्व जे सांख्य माने ले ते नित्य विकल्पं दूपे ले. जो ज्ञानादिक धर्माश्रयबु दि नित्य मानीयें तो तेहज पुरुष , जे माटें ज्ञान, वा, प्रवृत्ति (सम गेह के ) समानाश्रय . ज्ञानप्रवृत्तिनुं व्यधिकरणपणुं कल्पवं अनुचित डे. तथा बुद्धि नित्यपुरुषोपाधिरूप नटले, तो मुक्ति पण केम होय ? जो अनित्य मानो तो बुद्धिविनाशें वासना किहां रही ? अने जो न रही तो पु नः प्रपंचोत्पत्ति केम होय ? जो एम कहेंशो के, बुद्धि विनाशे प्रकतें लीन वासना रही तो बुदि साधनानुं हुं काम ? प्रत्याश्रितज्ञानादिगुणावि वें ज कार्य थाशे ॥ ७ ॥
॥अहंकार पण तस परिणाम, तत्त्व चवीसतणुं किहां ठाम ॥ सक ति विगति प्ररूतें सवि कहो, बीजा तत्त्व विमासी रहो ॥ ७॥ अर्थःबुदितत्त्व मिथ्या तेवारें तत्परिणाम अहंकारादिक पण मिथ्या. चोवीश त त्त्वनुं ठाम किहां होय? चोवीश तत्त्वना धर्मशक्ति विगतें करी प्रकृतिथीज सर्व कहो, बीजा तत्त्वबुध्यादिक , ते विमासीने रहो. एटले प्रकृतिविला स ते अजीवतत्त्व विलासज दुन. जीवतत्त्वतो मुख्य बीजा उजयपरिणाम रूप ले. एम नवतत्त्वप्रक्रिया तेहज गुरू थ जाणवी ॥ ७० ॥
॥विरमे रमे यथा नर्तकी, अवसर देखी अनुनवथकी॥प्रकृति अचेत न किम तिम रमे, विरमे जो करता नवि गमे ॥ ७ए ॥ अर्थः- नाटक णी पोताना अनुनवथी कार्य नाशादिकने विषे रमे, तथा अवसर देखी दानादिक पामी विरमे, तेम प्रकृति अचेतन , ते केम रमे ? अने विरमे ? जो करता पुरुष तुऊने न गमे ॥ एवं च॥रंगस्य दर्शयित्वा निवर्त्तते नर्तकी यथात्मानं ॥ पुरुषस्य तथात्मानं प्रकाश्य विनिवर्त्तते प्रकृतिः॥इत्यादि शिष्य कहे ,ते शिष्य धंधमात्र कहे. पुरुषने आत्मदर्शन प्रकृति करे, ते अ चेतनने न संजवे. नवा तिहां प्रयोजन तहान ॥ ७ ॥
॥प्रकतिदिदायें जिम सर्ग, शांति वाहितायें मुक्तिनिसर्ग ॥ कर्ताविण ए कालविशेष, तिहां वलगे नय अन्य अशेष ॥०॥ अर्थः- प्रकृति