Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 05
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 347
________________ दृष्टांतशतक. ३३५ ', स्त्रीयें पोताना स्वामीने कयुं के, हे स्वामीनाथ या माहरा वे पगमां मेंदी गाडी ते जेम धोवाय नही अने मारा पगनो रंग न जाय तेम मुने ते डी जा. त्या ते पुरुष स्त्रीना वे पग हाथमां लइने उंचा राख्या, अने हाथ महोडुं यने नाकने पाणीमां राख्युं एवी रीतें तेने लइने जलमां चाव्यो. ते जेवारें नदीने कांठे उतस्यो तेटलामां स्त्रीना मोढामां तथा नाक कानमां जल नरवाथी स्त्री मरणशरण थइ. तेवारें जेवी रीते मुवेला ढोरने घसर डे, तेवी रीतें घसरडीने तेने बाहेर काढी, ते वखतें नदीने कांठे को मनु ष्य को रहेलो हतो ते कल्युं के, हे मूर्ख तें या गुं क ? जे माटे या स्त्री तो मरण पामी. तेवीरीतें तुं बंधे माथे घसडीने जलमांथी केम लाग्यो ? एक कार्य को ? त्यारे ते पुरुष बोल्यो के, में जे कयुं बे, ते जा एजयुं बेम के स्त्रीतो मरण पामी तेनो जीव गयो, परंतु तेना पगना दीनो रंगतो लालज रह्यो छे. कयुं ने के, ॥ दोहा ॥ मूढमति मारी प्रिया, यो नदीने तीर || देखी अन्य नर मांनीयो, कां कीयो जड पीर ॥ १ ॥ तेह प्रतें मूढ बोलीयो, कीधो एह प्रकार ॥ जीव गयो पण रंग रह्यो, मु ऊ मन एह विचार ॥ २ ॥ इति त्रेवीशमो दृष्टांत ॥ २४ ॥ जाय हीनने सर्वत्र दुःख थाय तेनो ऊपर चोवीसमो दृष्टांत कहे बे. ॥ ग्रीष्मे बरथो वने विवसनः प्राप्तोऽर्चिषा पीडित, वायां वीक्ष्य ग तोऽपि बिल्कतले, तत्के फलं याववत् ॥ तनुत्वा पततीति चिंतति तदा यामि क नग्नं शिरो, दुःस्थो गच्छति यत्र याति तदनु बायेव शीघ्रं विपत् ॥ २५ ॥ अर्थः- कोई एक दरी ने वली माथामां टाली पडेली एवो टाली यो पुरुष नमकालने विषे वस्त्ररहित सूर्यना तापथी मस्तकमां याकुल येलो नूख तृमायें पीडा पामतो बतो एक बीलीना जाडनी नीचें उनो रह्यो, त्यां ते बीलीनां फल पहराना जेवां माथाऊपर पड्यां ते फल पड वा विचार करवा लाग्यो के, हवे हुं क्यां जाउं माधुं तपवाना दुःखथी ज्यारे हुं बीलीना वृक्ष तले गयो तो त्यां पण मस्तक ऊपर बीलीफल पड्यां, माटे नाग्यरहित जन जे ठेकाणे जाय तेनी पढवाडे बायानी पेठे आपत्ति शीघ्रतायेंज खावे बे. कयुं वे के, ॥ श्लोक ॥ खल्वाटो दिवसेश्वर स्य किरणैः संतापितो मस्तके, वांढन् देशमनातपं विधिवशात् बिल्वस्य मूलं

Loading...

Page Navigation
1 ... 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401