Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 05
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 333
________________ दृष्टांतशतक. अथ ॥ गुर्जरभाषासहित दृष्टांतशतकस्य प्रारंनोऽयम् ॥ ३२१ ॥ शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ ॥ नत्वा श्रीकृषनं सदा वृषधरं सौख्याकरं सुंदरं, देवेंादिनुतं मुनींम हितं पौरस्त्यतीर्थंकरम् ॥ श्रोतॄणां प्रतिबोधकं सुखकरं दृष्टांतकानामहं, कुर्वे काव्यशतं निजापरनृणां व्याख्यानस देतवे ॥ १ ॥ अर्थः- ग्रंथकर्त्ता मंगलाचरणने खर्थे श्रीतीर्थंकरने नमस्कार करे बे. जे निरंतर वृष जे धर्म तेने धारण करनार, सुखना नंमार, तथा सुंदर मनोहर रूपवंत, वली दे वैदिकें जेमने नमस्कार करेलो बे, घने पुंमरीकादिक महामुनियें जेम नुं पूजन करेलुं बे, एवा जे प्रथम तीर्थकर श्रीकृषनदेव भगवान तेमने ग्रंथकर्त्ता कहे ने के, हुं नमस्कार करीने, सांभलनारने बोधनुं करनार, त या नव्यजीवने मांगलिकनुं करनार एवं धने पोताने तथा अन्यजनोने व्याख्यान करवानां रूडा कारणमाटे दृष्टांतना सो काव्यनी अर्थात् दृष्टां तशतक नामा ग्रंथनी हुं रचना करूं बुं ॥ १ ॥ तिहां संसारसुखने मधाबंडुनी उपमा दईने पहेलो दृष्टांत कहे ते. ॥ कश्चित्काननकुंजरस्य जयतो नष्टः कुबेरालयः, शाखासु ग्रहणं चकार फणिनं कूपे त्वधो दृष्टवान् ॥ वृक्षो वारणकंपितोऽथ मधुनो, बिंदू नितो जेटि स, लुब्धश्वामरशब्दितोऽपि न ययौ संसारसक्तो यथा ॥ २ ॥ अर्थः- कोइक पुरुष, वनमां जतां कोइक हाथीने देखी तेना जयश्री नागे. ते जेवारें हा थी तेनी नजीक श्राव्यो, तेवारें ते पुरुष कुबेरालय एटले कुबेरस्य यालयः कुबेरालयः अर्थात् वडनी पासेना कूवामां लटकती एवी एक वडवृनी जे माल, तेने ग्रहण करतो हवो. एटले नयथी याकुल थयेलो थको कूवा मां लटकती वडवाइने पकड़ी अधवचाले लटकी रह्यो. तेवार पछी ते पु रुष हेतुं जुवे बे, तो कूत्राने विषे चार महोटा सर्प ( अजगर ने ) देखतो ह वो खने ऊपर जोयुं तो, जे वडवाइने ते पोतें पकडी रहेलो बे. ते वड वाइने एक कालो बंदर ने बीजो धोलो नंदर एवा बे नंदर कापे बे. ली तेनी उपर एक वडनी मालें महोटो मधुपूडो वलगेलो बे. एवा सम यमां हाथीयें खावीने ते वडवृने कंपायुं. एटजे धंधोल्युं. तेथी मधुपू व ४१

Loading...

Page Navigation
1 ... 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401