Book Title: Jain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Sanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha

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Page 4
________________ मेरा प्रयोजन पाठक वृन्द! इस जातीय चिठे रूपी पुस्तिका को आपके समक्ष रखन में मेरा प्रयोजन यही है कि समाज का आगल-वृद्ध अपनी वर्तमान शोचनीय दशासे परिचित हो और अपना एंव अपनी जातिका मुख उज्वल करने के लिये वास्तविक सुधार को सृष्टि दे। मुझे यह प्रकट करते हर्प है कि समाज को अपनी निर्जीव मतप्रायः दशा का ज्ञान हो चला है और वह उस पर गम्भीर विचार भी करने लगी है। श्री मारलवर्षीय दि० जैन परिषद ने सामाजिक हास के कारणों ओर उसके उपायों की खोज के लिये एक कमेटो नियुक्त की थी और उस.क.मेटी का सेम्बर होने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त था। मैंने उसी समय से इस विषय की गरेपणा करना प्रारमा करदी थी। इतने में अजमेर के श्री दि० जैन विद्यालय भण्डार ने भी इस विषय पर निबन्ध मेगाये। मैं परिपद के प्रस्तावानुसार जो लेख लिख रहा या उस ही को उक्त भण्डार की परीक्षक कमेटी के पास भेज दिया। प्रसन्नताकी वात है कि परीझक कमेटी ने उसे स्वीकृत और पुरस्कृत किया । आज वही निवन्ध इस पुस्तक-रुप में प्रकट हो रहा है। उधर श्री संयुक्त प्रान्तीय दि० जैन समा ने भी इस शन्त के जैनियों की दशा सुधारने के विचार से ऐसा ही प्रस्ताव स्वीकृत किया। एवं इस प्रान्त के जैनियों का परिचय प्राप्त करने के लिये मेरे प्रिय मित्र वाचू शिवचरणलाल जी को नियुक्त किया। सारांश यह कि अखिल भारतीय और प्रान्तीय

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