Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 11 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 7
________________ अङ्क ११ ] श्रुति स्मृति और वेद आदि शब्दोंका ऐसा खुला हुआ और जगत्प्रसिद्ध अर्थ होनेकी अवस्था में भी और आचार्य महाराजको भी यही अर्थ मान्य होनेकी हालत में भी ये शब्द जैन ब्राह्मणोंको शिक्षा देने में जिस प्रकार व्यवहारमें लाये गये हैं, उससे यह बात स्पष्ट सिद्ध होती है कि जैनी ब्राह्मणोंको बिलकुल वही रूप दिया गया था जो वैदिक ब्राह्मणोंका था । पर्व ३९ में लिखा है कि वेद, पुराण, स्मृति, चरित्र, क्रियाविधि, मंत्र, देवता-लिंग और आहारादिकी शुद्धि का यथार्थ रीति से वर्णन जिसमें परम ऋषियोंने किया है वही धर्म है; इसके सिवाय और सब पाखंड है । जिसके १२ अंग हैं, जो शुद्ध है और जिसमें श्रेष्ठ आचरणोंका निरूपण है, वही श्रुतज्ञान है, उसहीको वेद कहते हैं; जो हिंसाका उपदेश करनेवाला वाक्य है वह वेद नहीं है, उसको तो यमराजका वाक्य मानना चाहिए । ! ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति । वेदः पुराणं स्मृतयश्चरित्रं च क्रियाविधिः । मंत्राश्च देवतालिंगमांहाराद्याश्च शुद्धयः ॥ २० ॥ एतेऽथ यत्र तत्त्वेन प्रणीताः परमर्षिणा । स धर्मः स च सन्मार्गस्तदाभासाः स्युरन्यथा ॥ २१॥ श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशांगमकल्मषं । हिंसोपदेशि यद्वाक्यं न वेदोऽसौ कृतांतवाक् ॥ २२ ॥ इसी प्रकार पर्व ३९ में लिखा है कि जब वह श्रावक अपने चारित्र / और अध्ययनसे औरोंका उपकार करता है, प्रायश्चित्त आदि सब विधियोंको जान लेता है और वेद स्मृति और पुराण आदिका जानकार हो जाता है, गृहस्थाचार्य हो जाता है: तब विशुद्धस्तेन वृतेन ततोऽभ्येति गृहीशितां । वृत्ताध्ययनसंपत्त्या परानुग्रहणक्षमः ॥ १३ ॥ प्रायश्चित्तविधानज्ञः श्रुतिस्मृतिपुराणवित् । ' -गृहस्थाचर्यता प्राप्तस्तदा धत्ते 'गृहीशितां ॥ ११४ ॥ Jain Education International *४७३ इसी प्रकार पर्व ३९ में लिखा है कि अन्य यजमान भी जिसकी उपासना करते हैं ऐसा वह बुद्धिमान् भव्य अर्थात् जैन ब्राह्मण स्वयं पूजा करता है और अन्य लोगों से कराता है; वेढ वेदांगके विस्तारको स्वयं पढ़ता है और दूसरोंको पढ़ाता है: स यजन्याजयन् धीमान् यजमानैरुपासितः । अध्यापयन्नवीयाना वेदवेदांगविस्तरं ॥ १०३ ॥ इसी प्रकार पर्व ३९ में ही लिखा है कि: द्विजों अर्थात् जैनी ब्राह्मणों की शुद्धि श्रुति स्मृति, पुराण, चारित्र, मंत्र और क्रियाओं से और देवताओंका चिह्न धारण करने तथा कामका नाश करनेसे होती है : श्रुतिस्मृतिपुरावृत्तवृत्तमंत्र क्रियाश्रिता । देवतालिंगकामांतकृता शुद्धिर्द्विजन्मनां ॥ १३९ ॥ इसी प्रकार पर्व ४० में लिखा है कि, अब मैं श्री ऋषभदेवकी श्रुतिके अनुसार सुरेन्द्रमंत्र कहता हूँ: मुनिमंत्रोऽयमानातो मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः । वक्ष्ये सुरेंद्रमंत्रं च यथा स्माहार्षभी श्रुतिः ॥ ४७ ॥ फिर इसी पर्व के श्लोक ६३ में लिखा है कि मैं श्रुति के अनुसार परमेष्ठी मंत्र कहता हूँ:मंत्रः परमराजादितोऽयं परमेष्ठिनां । परं मंत्रमितो वक्ष्ये यथाऽऽह परमा श्रुतिः ॥ ६३ ॥ फिर इसी पर्वके श्लोक १९२ में लिखा है कि, श्रुतिका आश्रय लेनेवाले इन द्विजोंको अर्थात् जैनी ब्राह्मणों को जो स्वतंत्रता है उसे व्यवहारेशिता कहते हैं: व्यवहारेशितां प्राहुः प्रायश्चित्तादिकर्मणि । स्वतंत्रतां द्विजस्यास्य श्रितस्य परमां श्रुतिम् ॥ १९२॥ वैदिक धर्म में ग्रहत्यागीको परिवाजक कहते हैं। जैनशास्त्रों में इसके स्थान में मुनि, साधु, निर्ग्रन्थ अनगार आदि शब्द व्यवहार किये जाते हैं; For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52