Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 42
________________ - ५०८ जैनहितीषी [भाग १३ जनसमूहस्य योषा साधाणत्वात् वारयोषा ।' अर्थात् उसने सुना कि वैश्याने शीलवत ले लिया है, जो जनसमूहकी स्त्री हो, उसे वारयोषा या वार- इस लिए वह प्रतिकूल हो गया और आभूषण नारी कहते हैं । और 'गणः समूहोऽत्यस्याः भर्तृ- नहीं लाया । दूसरे दिन वेश्याने कोतवालको त्वेन गणिका।' अर्थात् जिसका पुरुष-समूह पति गबाह बनाकर अपना मामला दरबारमें पेश हो, उसे गणिका कहते हैं । प्रायः सर्वत्र ही इन किया। परन्तु पृथुधी आभूषणों की बातसे इंकार शब्दोंकी व्युत्पत्ति इसी रूपमें की गई है । अतः कर गया। तब राजाने अपनी रानीसे इस विषयमें इन शब्दोंका और कोई अर्य बतलाना पूछा । उसने सारे आभूषण सामने लाकर जबर्दस्ती है। रख दिये। इस पर राजा अपने साले पर बहुत ___ और ब्रह्मचारीजीने आदिपुराणको भी तो कुपित हुआ और बोला-इसे मार डालो। अच्छी तरह देखनेकी कृपा नहीं की । उसमें ही यह कथा उक्त पर्वके २८९ वें से लेकर ऐसे कई प्रसङ्ग इन सतयुगकी वेश्याओंके सम्ब- ३१० वें तकके श्लोकोंमें लिखी गई है । जिन न्थमें आये हैं, जिनसे उनका व्यभिचारिणी होना पाठकोंको कुछ सन्देह हो वे वहाँ देख सकते हैं। ही सिद्ध होता है, ब्रह्मचारिणी नहीं। उत्पल मालाके लिए वहाँ गणिका शब्दका ही १. आदिपुराणके पर्व ४६ में एक कथा लिखी प्रयोग किया गया है । कथासे साफ साफ मालूम है कि पुष्कलावती देशकी पुण्डरीकिनी नगरीका होता है कि वह व्यभिचारिणी थी और सर्वराजा गुणपाल था । एक दिन उसके सामने रक्षित, पृथुधी आदि व्यभिचारके लिए ही उसके नाट्यमाला नामकी एक नटपुत्रीने बहुत ही यहाँ आया करते थे । कमसे कम कुबेरप्रिय बढ़िया नृत्य किया। उसे देखकर राजाको बहुत सेठके साथ तो वह व्यभिचार ही करना चाहती ही विस्मय हुआ । तब उत्पलमाला नामकी वेश्या थी। मैं शीलवत ग्रहण करती हूँ, इसका अर्थ बोली-महाराज, नटिनीके इस नृत्यमें कौनसा ही यह है कि मैं पहले व्यभिचारिणी थी। आश्चर्य है ? आश्चर्यकी बात तो यह है कि २. इसी पर्वमें भीम नामक दरिद्रीकी कथा. इस नगरके सेठ कुबेरप्रियका मन डिगानेके का वर्णन करते हुए लिखा है कि मुनिराजने वास्ते मैंने एक दिन बहुत प्रयत्न किया, परन्तु उसे आठ व्रत दिये थे, जिन्हें उसके पिताने न डिगा सकी। इस पर राजा प्रसन्न हुआ और नापसन्द किया और वह भीमको उन्हें वापस बोला कि वर माँग । वेश्याने शील पालनेका वर करानेके लिए मुनिके पास लेकर चला । मार्गमें माँगा; कहा कि मुझे शील ही प्यारा है । राजाने भीमने इन आठों व्रतोंसे विपरीत चलनेवाले वर दे दिया और उसने शीलवत धारण कर आठ मनुष्योंको देखा, जिन्हें घोर दण्ड मिल लिया। दूसरे दिन रातको सर्वरक्षित नामका रहा था । उनमें एक ऐसे अपराधीको भी देखा कोतवाल उसके पास आया। वेश्या बोली, मैं तो जिसने सेठके घरसे एक बहुमूल्य हार चुराकर रजस्वला हूँ । इतनेमें ही राजाका साला प्रथुधी- वेश्याको दे दिया था। इससे भी मालूम होता जो मंत्रीका पुत्र था-वहाँ आ पहुँचा। यह देख है कि वह वेश्या व्यभिचारिणी थी और धनके वेश्याने कोतवालको तो सन्दूकमें छुपा दिया बदलेमें अपना शरीर बेचती थी । मूल श्लोकमें और प्रथुधोसे कहा, तुमने जो मेरे सारे आभूषण यहाँ भी गणिका शब्दका ही प्रयोग हुआ हैअपनी बहनको दे दिये थे, उन्हें वापस ले 'चौर्येण गणिकायै समर्पणात् ।' (पर्व ४६, आओ । वह बोला-हाँ, अभी लाता हूँ। पीछे श्लो० २७५।) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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