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अङ्क ११]
आदिपुराणका अवलोकन ।
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जिन्हें ग्रन्थकर्ता सब स्त्रियोंके लिए उपयोग में होते हैं, तब मालूम नहीं उनके लिए यज्ञो - लाते हैं । पवीतका पहनना कैसे ठीक हो सकता है । इसके सिवाय उनके कर्णछेदनसंस्कार नहीं होता है, फिर भी उनके कानों में कुण्डल पहना दिये गये हैं ।
यह तो हुई भगवान् आदिनाथके समयकी बात, अब आइए, उनके पहले भवोंके समय के भी आभूषण मालूम कर लें । तीर्थकर भवसे पहले भगवान् सर्वार्थसिद्धिके अहमिन्द्र थे, जहाँ वे सागरों वर्षों तक रहे हैं और उससे भी पहले विदेह क्षेत्र में राजा वज्रनाभ थे । देखते हैं, कि ग्रन्थकर्त्ता इन वज्रनाभको भी जो भगवानसे अर्थों पदमों संख वर्षोंसे भी बहुत पहले हुए हैं और एक बहुत दूरके भिन्न ही क्षेत्रमें हुए हैं - कुण्डल, हार, बाजूबन्द, और कमरके
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ही पहनाते हैं ( पर्व ११, श्लोक १७ - ४४) । वज्रनाभसे पहले भगवान्का जीव सोलहवें स्वर्गका इन्द्र था, जहाँ वह सागरों तक रहा और इससे भी पहले राजा सुविधि था, परन्तु वहाँ भी वह कुण्डल, हार, और कटिकिंकिणी पहनता था ( पर्व १० श्लो० १२७ - ३६ ) इससे भी कई भवों के पहले राजा वज्रजंध और महाबल आदिकी पर्यायोंमें वह लगभग इन्हीं • आभूषणोंसे सजाया गया है । स्त्रियोंके विषयमें भी लगभग यही बात है, अर्थात् वे भी प्रायः प्रत्येक समय और देश में एकहीसे आभूषणोंसे भूषित की गई हैं ।
आगे जब हम स्वर्गके देवों और भोग भूमि योंके शृंगारको देखते हैं, तब हमें और भी अधिक आश्चर्य होता है, अर्थात् हमें वहाँ भी इन्हीं आभूषणोंके नाम मिलते हैं । ग्रन्थकर्ता महाराजने सबको एक ही साँचे में ढालनेका प्रयत्न किया है । यहाँ तक कि उनकी दृष्टिमें कुण्डल पहने बिना देव भी अच्छे न मालूम होते थे, इस कारण उनका कान छिदे हुए ही पैदा होना बताया है! उधर भोगभूमियोंको पूर्वोक्त आभूषणों के साथ ' जनेऊ ' का भी सदा पहने रहना बतलाया है 1 भोगभूमियाँ अब्रती
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हमारे देशके लोगों को यह जानकर आश्चर्य. होगा कि आचार्य महाराजने । स्त्रियोंके मुख्य आभूषण नथ या बेसरका — जो नाकमें पहना जाता है और स्त्रियोंके सुहागका मुख्य चिन्ह है - तथा काँच, लाख, या हाथीदाँतकी चूड़ि योंका - जिन्हें सौभाग्यवती स्त्रियाँ अवश्य पहनती हैं- क्यों वर्णन नहीं किया । परन्तु हमारी समझमें इसमें आश्चर्य की बात कोई नहीं है। अबतक के कथन पर अच्छी तरह विचार करने से मालूम होता है कि ग्रन्थकर्त्तीने आभूषणों का जो कुछ वर्णन किया है वह अपने ही समय के और देशके अनुसार किया है । अर्थात् उनके समय में, उनकी जन्मभूमिमें और उनके परिचित प्रान्त में स्त्रीपुरुषोंके जो कुछ आभूषण थे, उन्हें ही उन्होंने सब समयों और सब देशों के लोगोंको पहनाया है। इस बातका विचार ही नहीं किया है कि समय और देशादिके भेद से पहनाव ओढ़ावमें परिवर्तन हुआ करता है ।
दक्षिण प्रान्तकी स्त्रियाँ अपने बालोंमें फूलोंकी माला गुधवाती हैं । यह उनका बहुत ही प्यारा शृंगार है। उनके घूँघटरहित खुलें सिरमें यह फूलोंका शृंगार मालूम भी बहुत भला होता है । आदिपुराण में भी हम देखते हैं कि प्रत्येक समय और प्रत्येक देशकी स्त्रियाँ फूल-मालाओंसे सिर गुँधवाये हुए हैं। भगवान की स्त्रियों के बिषयमें पर्व १५ श्लोक १५ में लिखा है कि उनके सिरके बाल फूलमालाओं से गुंधे हुए थे, जिनके बंधन ढीले हो गये थे और इस उनमेंसे फूल गिरते थे । भगवानकी माता जब चलती थीं तो उनकी फूलोंसे गुँधी हुई चोटी
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