Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 37
________________ अङ्क ११ ] तरह यह जैनसमाज स्वयमेव ही उन्नति करने लगेगा और इसकी संख्या में वृद्धि होने लगेगी । जैन जनसंख्या की घटीके कारण बतलाये जा चुके और उन सबके दूर करनेके उपाय भी साथ ही साथ बतला दिये गये; अब केवल एक महान उपायकी ओर पाठकोंका ध्यान आकर्षित किया जाता है जो सब कारको दूर करनेका एक और अद्वितीय उपाय है, और वह है अज्ञानताको समाजसे हटाना । अज्ञानता ही सारे पापोंकी, सारे अवनतिके • कारणोंकी और सारे दुःखोंकी जड़ है । इसीके कारण हमारे आन्दोलन सफल नहीं होते, - कुरीतियाँ दूर नहीं होतीं, स्वास्थ्यरक्षा नहीं होती और हमारी संख्या बराबर घटती जाती है । अतएव हमें इसके दूर करनेके लिए हर तरहसे उद्योग करना चाहिए। पुरुषों और स्त्रियों दोनोंमें शिक्षाके और ज्ञानके प्रचारकी आवश्यकता है । यह प्रचार किन किन उपायोंसे होगा, यह बतलाने के लिए इस लेख में उपयुक्त स्थान नहीं है और हम समझते हैं कि अब इसके बतलाने की आवश्यकता भी नहीं रही है । विद्यालय, छात्रालय, पुस्तकालय, आदि खोलने, उपदेशादि देने के उपायोंको सभी जानने लगे हैं । आदिपुराणका अवलोकन । आदिपुराणका अवलोकन । ( लेखक, श्रीयुत बाबू सूरजभानजी वकील । ) ( ४ ) वेश-भूषा । इस समय लोगों को जितनी पृथिवी मालूम 'है वह जम्बूद्वीपका एक बहुत ही छोटा टुकड़ा है, यहाँ तक कि कोई कोई तो इसे भरतखण्डकेही अन्तर्गत मानते हैं; परन्तु इस छोटेसे खण्ड में Jain Education International ५०३. भी सैकड़ों और हजारों प्रकारके वेष दिखलाई दे रहे हैं और आभूषणों के विषयमें तो यहाँ तक विभिन्नता हो रही है कि किसी किसी देशमें तो स्त्रियाँ भी आभूषण नहीं पहनती हैं और किसी किसी देशमें पुरुष भी इनका पहनना जरूरी समझते हैं । दूर क्यों जाइए, अपने इस हिन्दुस्तान में ही पंजाबी, बंगाली, हिन्दुस्तानी, पारसी, गुजराती, मराठी और मद्रासियोंका पह नावा और आभूषण भिन्न भिन्न रूपका है। इसके अतिरिक्त जब हम अबसे सौ दो सौ वर्ष पहलेका हाल मालूम करते हैं तो अबसे भिन्न ही प्रकारके आभूषण पाते हैं और उससे भी सौ दो सौ वर्ष पहले उनसे भी भिन्न तरहके । गरज यह कि इस विचित्र संसार में स्थान और समयके परिवर्तन के साथ मनुष्यों के वेश भी परिवर्तित हुआ करते हैं । परन्तु आदिपुराण में हम इस परिवर्तनका कोई चिह्न नहीं पाते, यह बड़े आश्वर्यकी बात है । उसमें लाखों करोड़ों अब और खर्बो वर्षों के मध्यवर्ती सुदीर्घ समयोंमें और भरत क्षेत्र, विदेह क्षेत्र तथा स्वर्ग आदिके विभिन्न स्थानोंमें भी वस्त्राभूषणोंकी समानता बराबर दिखलाई देती है । आभूषण । कर्मभूमि के आरंभका वर्णन ( पर्व ३) पढ़नसे मालूम होता है कि उस समय नाभिरायने लोगोंको वृक्षोंके फलोंसे जीवननिर्वाह करना बतलाया, मिट्टीके वर्तन बनाकर दिये और उनका बनाना भी सिखलाया । उस समय आभूषण तो क्या बनेंगे, कपड़ोंका भी आविकार न हुआ होगा । परन्तु हम देखते हैं कि उस समय भी आदिपुराणमें आभूषणोंका कथन किया गया है और उन्हीं आभूषणों का जिनका कि प्रत्येक समयके लोगोंके विषय में किया गया है । जिस समय नाभिरायको मिट्टीके वर्तन बनाने के वास्ते दण्ड चक्र आदि मामूली औजार For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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