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जैन समाजके क्षयरोग पर एक दृष्टि ।
अङ्क ११ ]
पूजते हैं, नमोकार मंत्र क्या है, सात तत्त्व कौन कौन हैं, आदि । ऐसे स्थानों का कोई जैनी जब आर्यसमाजी भाइयोंकी संगतिमें आता है, उनकी सभाओं में उपदेश सुनता है, उनके धार्मिक काम देखता है तो धीरे धीरे उसका झुकाव उसी ओर होने लगता है और कुछ ही समय में वह पक्का आर्यसमाजी हो जाता है । बहुतसे जैनी युवक – जिनके चित्तमें समाजसेवाका तीव्र उत्साह होता है - जैन समाजमें कोई ऐसा कार्यक्षेत्र न पाकर जिसमें कि वे उत्साहपूर्वक काम कर सकें, आर्यसमाजोंमें काम करने लगते हैं, उनकी सहायता करते हैं, और समय बीतने पर उनके प्रभावसे प्रभावान्वित होकर आर्यसमाजी हो जाते हैं ।
बहुत से स्थान ऐसे हैं जहाँ जैनी नाममात्रके जैनी हैं - जैनधर्मसे शून्य हैं । न उनमें कोई विद्वान् है जो जैनधर्मका उपदेश दिया करे और न वहाँ उपदेशक लोग ही पहुँच ते हैं। ऐसे स्थानोंके लोग जैनी इसलिए कहलाते हैं कि उनमें जैनधर्म के कुछ चिह्न रहते हैंजैसे प्रतिदिन मन्दिरमें जाकर दर्शन करना, रात्रिभोजन नहीं करना, आदि । इस तरहके लोगों में से जब कोई प्रमादसे अथवा अन्य किसी कारणसे देवदर्शन छोड़ देता है और रात्रिभोजन आदि करने लगता है, तब उसमें जैनत्वका कोई चिह्न, नहीं रह जाता और वह अपनी जातिके साधारण हिन्दुओंकी तरह हो जाता है और यदि उस जाति के हिन्दुओं और जैनियोंमें परस्पर रोटी-बेटीका व्यवहार हुआ जैसा कि अग्रवालों में है, तो उक्त जैनी और हिन्दुओंमें कोई अन्तर नहीं रहता । ऐसी दशामें वह पुरुष और उसकी सन्तान कुछ समयतक तो जैनधर्मावलम्बी कहलाती है, परन्तु फिर एकाध पीढ़ी बीतने पर उसे यह भी याद नहीं रहता कि हमारे यहाँ कभी जैनधर्म भी पाला जाता था ।
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इस तरह बहुतसे जैन कुटुम्ब हिन्दूसमाज में मिल गये आरै मिलते जाते हैं ।
इस कारण से भी जैनसमाजकी जनसंख्यामें हानि हुई है । परन्तु यह हानि उतनी अधिक नहीं हुई है जितनी कि ऊपर लिखे अन्य दस कारणों से हुई है। फिर भी यह हानि हानि ही है और इससे बचनेका उपाय करना चाहिए ।
इसके लिए सबसे अच्छा उपाय विद्वान् उपदेशकों का प्रत्येक छोटे बड़े स्थानमें घूमना और उपदेश देना है । उन्हें प्रत्येक मनुष्यको जैनधर्मका रहस्य और उसका महत्त्व समझाना चाहिए, और जैनधर्म के ग्रन्थोंको निरन्तर पढ़ने की प्रेरणा करनी चाहिए। इससे वे समझ जावेंगे कि भगवान् महावीरका उपदेश क्या है, उनके उपदेशमें महत्त्व की बातें क्या क्या हैं और उनके धर्म में दूसरे धर्मोसे क्या क्या विशेषतायें हैं ।
जैन विद्वानों के भ्रमणसे केवल लाभ नहीं होगा कि जैनी जैनधर्मसे च्युत होने से बच जावेंगे, बल्कि बहुतसे अजैन भी जैन बन जावेंगे। भगवान महावीरका उपदेश इतना उत्तम है कि जिन हृदयक्षेत्रों पर यह पड़ेगा वहीं जैनधर्म के अंकुर उत्पन्न होने लगेंगे ।
उपदेशक जितने ही विद्वान्, निःस्पृह, निरभिमानी, शान्त और सच्चरित्र होंगे, उतना ही अधिक उनका लोगों पर प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि जनतापर उपदेशकी अपेक्षा चरित्रका प्रभाव अधिक पड़ता हैं ।
जैनधर्मको संसारका सर्वमान्य धर्म बनाने के कर्मवीरोंकी आवश्यकता है, लिए ऐसे जिनके मुख पर जैनधर्मकी झलक हो, जिनके प्रत्येक कार्य पर जैनधर्मकी छाप हो और जिनका हृदय जैनधर्मके उदार सिद्धान्तोंका क्रीडास्थल हो । जिनमें जैनधर्मके / प्रचार करनेका दुर्दममीय उत्साह हो, जिनका अपनी कषायों पर और इन्द्रियों पर अधिकार हो, जो द्रव्य-क्षेत्र-:
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