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जैनहितैषी
[ भाग १४ णोंको दी गई है, इन सब बातोंको अर्थात् इस कि भरत महाराजके द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापना लेखको इस स्थान पर फिर दोबारा पढ़नेसे होनेसे पहले ब्राह्मण वर्ण ही नहीं था, अर्थात्
और इसीके साथ पहले लेखको भी पढ़ लेनेसे उस समय क्षत्री वैश्य और शूद्र ये ही तीन यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि प्रकारके मनुष्य थे, ब्राह्मण कोई था ही नहीं । पंचम कालमें जिस समय हिन्दुस्थानमें ब्राह्म- तब ही तो भगवानके द्वारा तीन वर्गों की णोंका जोर बढ गया था, वे लोग जैन उत्पत्तिका वर्णन करके लिखा है कि अपने
और बौद्धोंसे पूरी पूरी घृणा करने लगे थे और मुखसे शास्त्रोंको पढ़ानेवाले ब्राह्मणोंको भरत इनमें वर्ण या जातिका भेद और गर्भाधान आदि रचेगा । पढ़ना पढ़ाना, दान देना लेना और क्रिया न होनेके कारण वे लोग इनको शूद्रोंसे पूजा करना कराना उनकी आजीविका होगी। यह भी घटिया मानते थे और ब्राह्मणोंका अधिक भविष्यवाणी करनेके पश्चात् आदिपुराणमें प्रचार और प्रभाव होनेके कारण जब कि जैनी अगला श्लोक यह लिखा है कि शूद्र शूद्रकी लोग भी पठन पाठन आदि उनहीसे कराते थे, ही कन्यासे विवाह करे, वैश्य अपने वर्णकी उनके अनेक संस्कार, अनेक क्रिया, और उनकी कन्यासे और शूद्रकी कन्यासे विवाह करे, क्षत्री अनेक शीतयाँ मानने लगे थे और लाचार होकर अपने वर्णकी कन्यासे और वैश्य और शूद्रबहुतसे कार्य उनहीसे कराते थे, तब किसी की कन्यासे विवाह करे, और ब्राह्मण अपने समय किसी जैनी राजाका आश्रय पाकर उनही वर्णकी कन्यासे विवाह करे कभी अन्य वर्णकी ब्राह्मणों से कुछ ब्राह्मणोंको फुसलाकर जैनी कन्यासे भी कर ले:" बनाया गया और उनसे वही काम लिया गया
मुखतोध्यापयन् शास्त्रं भरतः स्रक्ष्यति द्विजान् । जो वे पहलेसे करते चले आये थे, अर्थात् उनको
अधीत्यध्यापने दानं प्रतिक्षेज्यति तक्रियाः॥२४५॥ वैदिक ब्राह्मणके स्थानमें जैन ब्राह्मण बना लिया गया और अन्य जैनियोंको उनका यजमान
शद्रा शुद्रेण वोढव्या नान्या स्वां तां च नैगमः ।
वहेत्स्वाते च राजन्यः स्वां द्विजन्माक्वचिच्चताः॥२४७॥ बना दिया गया । इस समय भी जो जैनी ब्राह्मण दक्षिण देशमें मौजूद हैं, वे भी अन्य
-पर्व १६ । ब्राह्मणोंके समान ही जैन यजमानोंका काम भरतमहाराजके द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापनाकरते हैं और प्रायः वे ही सब क्रियायें कराते का कथन तो स्वयम् उस उपदेशके कथनसे ही हैं जो अन्य हिन्दुओंके यहाँ होती हैं। जड़ मूलसे उखड़ जाता है जो ब्राह्मण वर्णकी
स्वयम् आदिपुराणका कथन ही इस बातका स्थापनाके दिन भरतमहाराजकी तरफ़से ब्राह्मणोंसाक्षात् सबूत होते हुए-कि ये ब्राह्मण पंचम को दिया जाना आदिपुराणमें वर्णन किया कालमें ही बनाये गये हैं-उसका यह कथन गया है, जैसा कि हमने इस लेखमें और इसकिसी तरह भी माननेके योग्य नहीं हो सकता से पहले लेखमें दिखलाया है; परन्तु इस बातका है कि चौथे कालके प्रारम्भमें ही भरत महाराजके पता नहीं लगता है कि भरत महाराजके द्वारा द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापना हुई थी और यह ब्राह्मण बनाये जानेकी भविष्यवाणी और यह सब उपदेश भरत महाराजने ही ब्राह्मण वर्ण विवाहसम्बंधी आज्ञा जो उक्त श्लोकोंमें लिखी स्थापन करनेके दिन ब्राह्मणोंको दिया था। हुई है किसने दी और किस समय दी। श्रीभग
आदिपुराणके उस कथनका आशय यह है वान्ने तो न यह भविष्यवाणी ही कही और
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