Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 15
________________ ___“ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति। कोशिश करे, और तब ही तो वे लोग उसको वर्णलाभ होने पर वह नवीन जैनी देवयह जवाब देते हैं कि तुम जैसे सम्यदृष्टि- पूजादि षट्कर्म अर्थात् कुलचर्या करने लगता योंकी कमीके कारण ही हमको अपने समान है और फिर जब वह अपनी वृत्ति और पठनजीविका करनेवाले अन्य मतियोंसे ( अर्थात् पाठनसे दूसरोंका उपकार करने लगता है, अर्थात् वैदिक ब्राह्मणोंसे ) सम्बन्ध करना पड़ता है। अन्य ब्राह्मणोंके समान यजमानोंकी सब क्रियायें अर्थात् जब इस प्रकार होते होते जैनी ब्राह्मण कराने लगता है, प्रायश्चित्त आदि सब विधाअधिक हो जावेंगे तब हम अन्यमती ब्राह्मणोंसे नोंको जान लेता है, वेद स्मृति और पुराण बिलकुल ही सम्बंध तोड़ देंगेः आदिका जानकार हो जाता है, तब वह गृहवर्णलाभस्ततोऽस्य स्यात्संबंध संविधित्सतः। स्थाचार्य हो जाता है:समानाजीविभिलब्धवगैरन्यैरुपासकैः ॥ ६१॥ विशुद्धस्तेन वृत्तेन ततोऽभ्येति गृहीशितां । वृत्ताध्ययनसंपत्त्या परानुग्रहणक्षमः ॥ १३ ॥ चतुरः श्रावकान् ज्येष्ठानाहूय कृतसत्कियान् । तान्ब्रूयादरम्यनुग्राह्यो भवद्भिः स्वसमीकृतः ॥ ६२॥ प्रायश्चित्तविधानज्ञः श्रुतिस्मृतिपुराणवित् । गृहस्थाचार्यतां प्राप्तस्तदाधत्ते गृहीशितां ।। १४ ॥ यूयं निस्तारका देवब्राह्मणा लोकपूजिताः । -पर्व ३९ । अहं च कृतदीक्षोऽस्मि गृहीतोपासकवतः ॥ ६३॥ इन श्लोकोंसे स्पष्ट सिद्ध हो गया कि वेदपाठी एवं कृतव्रतस्याद्य वर्णलाभो ममोचितः । सुलभः सोऽपि युष्माकमनुज्ञानात्सधर्मणाम् ॥ ६८॥ ब्राह्मणोंको ही जैन ब्राह्मण बनानेके वास्ते यह दीक्षान्वय क्रिया बनाई गई है और श्रुति स्मृति इत्युक्तास्ते च तं सत्यमेवमस्तु समंजसं । पुराण आदिके अनुसार जो कुछ वृत्ति इन स्वयोक्तं श्लाध्यमेवैतत्कोऽन्यस्त्वत्सदृशो द्विजः ॥ ६९ ॥ ब्राह्मणोंकी थी और जो जो कुछ क्रियायें ये युष्मादृशामलाभे तु मिथ्यादृष्टिभिरप्यमा। लोग जैनी होने से पहले करते थे वा यजमानोंसे समानाजीविभिः कर्तु संबंधोऽभिमतो हि नः ॥ ७० ॥ कराते थे, जैन होनेके पश्चात् भी उनकी वे ही -पर्व ३९। वृत्तियाँ और क्रियायें कायम रक्खी गई, यहाँतक वर्णलाभके इस कथनसे यह भी मालूम होता कि मा कि उनकी वृत्तियों और क्रियाओंक नाम भी है कि जब अन्यमती ब्राह्मणोंको जैनी ब्राह्मण वहा - वही रहने दिये जो पहले थे । तब ही तो इस बनाना शुरू किया गया था, तब शरूमें अपनी नवीन जैनीको गृहस्थाचार्य हो जाने और संख्या कम होनेके कारण और वर्णव्यवस्थाकी प्रायश्चित्तादि देनेका अधिकार प्राप्त कर लेनेके मान्यता अधिक होनेके सबब इन जैनी ब्राह्मणों- वास्ते श्रुति, स्मृति और पुराणोंकी जानकारी को अन्यमती ब्राह्मणोंसे ही विवाह आदि संबंध प्राप्त करनेकी आज्ञा इन श्लोकोंमें दी गई है। रखना पड़ता था, इसी कारण उस समय जैन ब्राह्मणको दस अधिकार प्राप्त कर लेनेका लाचार होकर इन जैनी ब्राह्मणोंको अन्यमती जो कथन इस लेखमें पहले किया गया है, और ब्राह्मणोंकी अनेक क्रियायें माननी पड़ी, और इन जैन ब्राह्मणोंको उपदेश देते समय जो इनके ऐसा करनेसे धीरे धीरे अन्य जैनियोंमें वैदिक मतके पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग . भी इस क्रियाओं को प्रवेश हो गया और फिर किया गया है तथा उनके अग्नि, और भूमि होते होते जैन ग्रंथों में भी इनका कथन होने लगा। आदि देवताओंके पूजनेकी जो शिक्षा इन ब्राह्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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