Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 27
________________ अङ्क ११] विद्वज्जन खोज करें। ४९३ हो । 'शिवार्य ' अथवा 'शिवकोटि' नामके इसके मालूम होनेपर दूसरे अनेक प्रकारके उप आचार्यका बनाया हुआ 'भगवती आराधनासार' योगी अनुसंधानोंका जन्म हो सकेगा। इस लिए नामका एक प्राचीन ग्रंथ है । इस ग्रंथके प्रारं- जैन विद्वानोंको इस विषयकी खोज करनी भिक पाँच सात पत्रों पर ही दृष्टि डालनेसे चाहिए । मालूम हुआ कि इसकी भी अनेक गाथायें २ उक्त तत्त्वार्थ-राजवार्तिकमें नीचे लिखे गोम्मटसारमें ज्योंकी त्यों संग्रहीत हैं। नमू- तीन पद्य भी ' उक्तं च ' रूपसे पाये जाते हैंनेके तौर पर यहाँ उनमेंसे दो गाथायें उद्धृत- १-कारणमेव तदत्यः सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । की जाती हैं: __एकरसगंधवणे द्विस्पर्शः कार्यलिंगश्च ॥ सम्माइट्ठी जीवो २-यदेतद्रविणं नाम प्राणाह्येते बहिश्वरा उवइहें पवयणं तु सद्दहदि । स तस्य हरते प्राणान् यो यस्य हरते धनम् ॥ सद्दहदि असब्भावं ३-रागादीणमणुप्पा अहिंसकत्तेति देसिद समये । अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ २७ ॥ 'तेसिं चेदुपपत्ती हिंसेति जिणेहिं णिहिट्ठा । सुत्तादो त सम्म ___ भट्टाकलंक देवके द्वारा 'उक्तं च' रूपसे दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि उद्धृत किये हुए इन तीनों पद्योंमेंसे प्रत्येक पद्य सो चेव हवइ मिच्छा कौनसे मूल ग्रंथका पद्य है ? उसके कर्ता आचार्य इट्टी जीवो तदो पहुदो ॥ ३८ ॥ 'महोदयका क्या नाम है ? और वे किस सनये गाथायें भगवती आराधनासारमें क्रमशः संवत्में हुए हैं ? इन सब बातोंका अभी तक नं. ३२ और ३३ पर दर्ज हैं। इस ग्रंथकी कुछ पता नहीं चला । श्रीअमृतचंद्र आचार्य ४० और ४१ नम्बरकी गाथायें भी गोम्मट- समयादिक निर्णय करनेमें सहायता प्राप्त करसारमें (नं० १८-१७ पर ) पाई जाती हैं । संभव नेके लिए इन तीनों पद्योंका पता मालूम होनेकी है कि आगे मीलान करने पर और भी बहुतसी जरूरत है । क्योंकि उक्त आचार्य महोदयके गाथाओंका पता चले । गोम्मटसारके विषयमें बनाये हुए ' तत्त्वार्थसार ' और 'पुरुषार्थसिएक बात यह भी कही जाती है कि उसकी दयुपाय' नामके ग्रंथोंमें इन पयोंसे मिलते जुलते रचना धवलादि ग्रंथोंके आधार पर हुई है। नीचे लिखे पद्य पाये जाते हैं:यदि यह सत्य है तो उन ग्रंथोंकी गाथाओंका १-सूक्ष्मो नित्यस्तथान्त्यश्च कार्यलिंगश्च कारणम् ।। भी इसमें संग्रह होना संभव है। तब गोम्मटसा- एक गंधरसश्चैकवर्णो द्विस्पर्शवांश्च सः ॥३-६०॥ रकी ऐसी स्थिति होते हुए यह बात और भी - --तत्वार्थसारः। दृढताके साथ कही जा सकती है कि उक्त २-अर्था नाम य एते छहों गाथायें , नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम् । हरति स तस्य प्राणान् स्वतंत्र रचना नहीं है । अवश्य ही वे किसी दूसरे यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ॥ १.३॥ आचार्यकी कृति हैं । परंतु दूसरे आचाय 3-अप्रादुर्भावः खलु कौन हैं और उनके कौनसे ग्रंथ अथवा ग्रंथोंसे रागादीनां भवत्यहिंसेति। उक्त गाथायें गोम्मटसारमें संग्रह तथा तत्त्वार्थ- तेषामेवोत्पत्तिराजवार्तिकमें 'उक्तं च' रूपसे उद्धृत की गई हैं, हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४. यह मालूम होने की बहुत बड़ी जरूरत है। . -पुरुषार्थसिध्शुपायः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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