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कालकी बात ही नहीं हो सकती है, यह वर्ण पाँचवें कालमें ही बना है । भरत महाराज के सिर इसके बनाने का दोष व्यर्थ ही मढ़ा जाता है ।
जिस समय भगवानने प्रजाको तीनों वर्णोंके जुदे जुदे काम सिखलाये थे उस समय यदि ब्राह्मण वर्ण बनाने की जरूरत होती, तो कोई कारण नहीं है कि वे उन्हें न बनाते । यदि कोई ऐसी ही बात होती जिससे बहुत दिन पीछे भरतके द्वारा ही उनका बनाया जाना उचित होता, तो वे भरतको इस बातकी आज्ञा देते कि अमुक समय में अमुक रीतिसे ब्राह्मण वर्णकी स्थापना करना । यदि ऐसा होता तो १६ अनिष्ट स्वप्नोंके आने पर भरतजीको न तो किसी प्रकार की चिंता होती और न वे भगवानके समक्ष यह निवेदन ही करते कि आपके होते हुए भी मैंने यह कार्य मूर्खतावश कर डाला है और
अब इस कार्यकी योग्यता या अयोग्यताकी चिन्तासे मेरा मन डावांडोल हो रहा है । ( पर्व ४१ श्लोक ३२ - ३३ । ) इससे मालूम होता है कि ब्राह्मण वर्णकी स्थापना ऐसा कार्य नहीं था जो होना ही चाहिए था । भरतजीने यह व्यर्थ ही अटकलपच्च कर डाला था । • जैन शास्त्रोंसे मालूम होता है कि यहाँ अनन्त चार चौथा काल आया है और अनन्त वार कर्मभूमी रचना हुई है । परन्तु मालूम होता है कि इससे पहले ब्राह्मण वर्णकी स्थापना कभी किसी भी कर्मभूमिकी रचना के समय नहीं हुई । यदि ऐसा होता तो भरत महाराज के पूछने पर भगवान् यही उत्तर देते कि इसमें घबड़ाने की कोई बात नहीं है, क्योंकि ऐसा तो सदा ही होता आया है— चौथे काल में ब्राह्मणवर्ण पहले भी होता रहा है; परन्तु उन्होंने ऐसा उत्तर न देकर यही कहा कि तुमने जो साधुसमान व्रती श्राव - कोंका सत्कार किया, सो इस समय तो अच्छा ही किया है, चौथे कालम तो ये लोग धर्ममें
जैनहितैषी
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[ भाग १४
स्थिर रहेंगे; परन्तु आगे इनसे बड़े बड़े अनर्थ होंगे। ( देखो पर्व ४१ श्लोक ४३ - ५७ । )
भरतजीने ब्राह्मण वर्णकी स्थापना इस लिए नहीं की कि प्रजाको उसकी आवश्यकता थी । यदि ऐसा होता तो स्थापनाके प्रकरण में यह बात अवश्य लिखी जाती । वहाँ ता इससे विपरीत यह लिखा है कि उन्होंने अपना सारा धन परोपकारमें लगाने के लिए यह कार्य किया था । ( पर्व ३८, श्लोक ३-८ । )
उपासकाध्ययनसूत्रमें भी जो द्वादशांग वाणीका सातवाँ अंग है और जिसमें गृहस्थोंकी सारी क्रियाओंका वर्णन है - ब्राह्मणवर्णका जिकर नहीं मालूम होता । क्योंकि आदिपुराणके कथनानुसार ब्राह्मणवर्णकी स्थापना के समय भरतजीको इस उपासकाध्ययनका ज्ञान था । यदि इस अंगमें ब्राह्मणवर्णका कथन होता तो भरतजीको भगवानके समक्ष इस बातकी घबड़ाहट न होती कि ब्राम्हणवर्णकी स्थापनाका कार्य मुझसे योग्य हुआ है या अयोग्य, और वे भगवान से स्पष्ट शब्दों में कहते कि मैंने सातवें अंगके अनुसार ब्राह्मणवर्ण स्थापित किया है । उन्होंने तो केवल यही कहा है कि मैंने उपसिकाध्ययन सूत्र के अनुसार चलनेवाले ' श्रावकाचारचंचु पुरुषोंको ब्राह्मण बनाय | है | ( पर्व ४१ श्लोक ३०|)
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इन सब बातों से यह सिद्ध होता है कि न तो विदेहक्षेत्रों में ही ब्राह्मण वर्ण है - जहाँ सदा ही चौथा काल रहता है, न भरतक्षेत्र में सदासे ब्राह्मणवर्णकी स्थापना होती आई है, न द्वादशांगवाणीमें ही इस वर्णका उल्लेख है, न भगवान आदिनाथने इसे बनाया और न उनकी आज्ञा के अनुसार ही भरतने इसकी स्थापना की । उन्होंने इसे स्वयं ही अटकलपंचू, दूसरे शब्दों में जैनधर्मसे विरुद्ध, बना डाला था ।
अन्तमें हम अपने पाठकों से इस लेख के दोनों भागों को फिरसे एक बार बाँचनेकी प्रार्थना
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