Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 21
________________ अङ्क ११] विचित्र ब्याह। ४८७ करते हैं और इतना और सुचित कर देना गेंद बना दें करका, चाहते हैं कि हमने इस लेखमें आदिपुराणके अपनेकी तो बात अलग है, उस कथन पर बहस नहीं की है जिसमें ब्राह्मण . खेद मिटादें परका ॥ ३ ॥ वर्णकी उत्पत्तिकी विधि लिखी है । उस कथन अबलाको भी प्रबला करता, समय विलक्षण क्षणमें, पर तो इतनी अधिक शंकायें उत्पन्न होती हैं चन्दन-कण भी मिल जाता है, कि यदि उन सब पर विचार किया जाय तो कभी अग्निके कणमें। इससे भी अधिक लिखना पड़े । परन्तु हमें किसी बातको कभी असंभव, आशा है कि अब हमें उन बातोंको लिखना न कहना नहीं भला है, पड़ेगा, इस लेखको पढ़नके बाद हमारे भाई पलमें निबल सबल हो जाते, स्वयं ही उन पर विचार कर लेंगे। चल जाती अचला है ॥ ४ ॥ प्रथम चाहती रही सुशीला, धर्म-ब्याह सुतका हो । विचित्र ब्याह । जिस कारणसे हँसी न हो या, पाप धर्मच्युतका हो। (लेखक, श्रीयुत पं० रामचरित मा।) हरिसेवकको किन्तु देखने, कोई कभी न आया। पक्रम सर्ग। हा.! निर्धन बुधको मी जगमें, मेरे सुतको कोई सज्जन, . किसने कब अपनाया ? ॥५॥ दे देता जो कन्या, धनहीना थी यद्यपि वह पर तो मैं पुत्रवधूको पाकर, उसने मनमें ठाना, जगमें होती धन्या। घर बेचूंगी ब्याह करूँगी. इसी सोचमें पड़ी सुशीला, सुतका निज मन माना। तनिक नहीं सोती थी, निर्धनकी कन्याका उसने, विकल हुई रहती थी हरदम, : झट पट पता लगाया, मन-ही-मन रोती थी ॥१॥ रूपचन्दको किसी युक्तिसे, रत्नाकरसे पंगु रत्नको, अपने पास बुलाया ॥६॥ कैसे पा सकता है ? निकट सुशीलाके निज घरसे, पुण्य-हीन जन पुण्य-लोकमें, रूपचन्द तब आया, कैसे जा सकता है ? और सुताका उसने आकर, मला मनोरथ क्यों पूरा हो, लक्ष्मी नाम बताया। धन-विहीनका जगमें, अति लोभी बनिया था उसका, कल्पवृक्ष क्या उग सकता है,. / लोभ नगरमें घर था, कभी मरुस्थल-मगमें ? ॥२॥ उभय लोकमें पाप, अयशका, पर उद्यमके बल उद्योगी, उसे न कुछ भी डर था ॥७॥ सब कुछ कर सकते हैं, कहा सुशीलाने उससे तब, वे न लिघत्राधाओंसे कुछ, अपना हाल विनयसे, मनमें डर सकते हैं। फिर हरिसेवकके गुणको भी, चाहें तो वे चन्द्र सूर्य को, कथन किया अति नगसे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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