Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 13
________________ अङ्क ११] ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति। जिसमें वेद, पुराण, स्मृति, चरित्र, कियाविधि, पिता है और तत्त्वोंका ज्ञान होना ही संस्कार मंत्र, देवता-लिंग, आहार और शुद्धिका यथार्थ किया हुआ उसका गर्भ है जिससे वह भव्य रीतिसे निरूपण किया है वही धर्म है, शेष सब पुरुष 'धर्मरूप जन्म धारण कर अवतीर्ण होता पाखंड हैं। जिसके बारह अंग हैं और जिसमें है । इस भव्य पुरुषकी यह अवतारक्रिया गर्भाश्रेष्ठ आचरणोंका वर्णन है, वह वेद है । जिसमें धान क्रियाके समान मानी जाती है। हिंसाका उपदेश हो वह वेद नहीं हो सकता, वह . इसके बाद वह व्रत ग्रहण करता है, और तो यमराजका वाक्य है । (वेद, स्मृति आदि उसको श्रावककी दीक्षा दी जाती है, अर्थात् ब्राह्मणधर्मके ही पारभाषिक शब्दोंका प्रयोग पूजनके पश्चात् गुरु मुद्राकी रीतिसे उसके मस्तककरने, क्रियामंत्र आदिका वर्णन करने और जैन का स्पर्श करके उससे कहा जावे कि तू अब शास्त्रोंको वेद बतानेसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि पवित्र हो गया है, फिर उसको नमस्कार मंत्र वेदपाठी ब्राह्मणोंको ही फुसलाने और समझानेके दिया जावे, ‘इसके बाद वह मिथ्यादेवोंको वास्ते ये सब बातें सिखाई जा रही हैं।) अपने घरसे बारह निकाल दे, उन देवताओंसे ___ जिसमें हिंसाका निषेध है वही पुराण और कहे कि मैंने अपने अज्ञानसे इतने दिन तक धर्मशास्त्र है । वे पुराण और धर्मशास्त्र जिनमें बड़े आदरके साथ आप की पूजा की, अब मैं हिंसाका उपदेश है धूर्तीके बनाये हुए हैं। सिर्फ अपने ही मतके देवोंकी पूजा करूँगा; देवपूजा आदि आर्योंके करने योग्य छः कर्म ही इस कारण क्रोध करनेसे कुछ लाभ नहीं है। चारित्र है । गर्भाधानसे लकर निर्वाणपर्यंत- आप 'अब किसी दूसरी जगह ही रहें। ऐसा की जो ५३ क्रियायें हैं वे ही ठीक क्रिया हैं। कहकर वह उन देवताओंको किसी दूसरी जगह गर्भसे मरणपर्यंतकी जो क्रियायें अन्य मतमें रख आवे । ( इससे भी सिद्ध है कि नित्य कही गई हैं वे मानने योग्य नहीं हैं । इन ५३ पूजन करनेवाले वैदिक धर्मके ब्राह्मणको ही जैनी क्रियाओंमें जो मंत्र पढे जाते हैं. वे ही सच्चे बनानेके वास्ते यह क्रिया है, न कि साधारण मंत्र हैं । प्राणियोंकी हिंसा करनेमें जिन मंत्रोंका लोगोंके वास्ते ।) प्रयोग किया जाता है वे खोटे मंत्र हैं । तीर्थकर इसके बाद वह द्वादशांग वाणीका अर्थ आदि देव ही शान्ति करनेवाले देव हैं, मांसभक्षी सुनता है, फिर चौदह पूर्वको भी सुनता है, क्रूर देवता त्यागने योग्य हैं । निथपना ही सच्चा फिर अन्य मतके ग्रन्थ देखता है, फिर उपवासलिंग है, हरिणका चमड़ा आदि रखना कुलिंग के दिन आत्मध्यान करने लगता है, और फिर है । मांसरहित भोजन करना ही आहारशुद्धि उसको जनेऊ दिया जाता है। (इससे भी सिद्ध है, मांसभोजीको सर्वघाती समझना चाहिए। है कि ब्राह्मणको ही जैनी बनानेके वास्ते यह जिनेंद्र मुनि या स्वदारसंतोषी गृहस्थके ही उपदेश है । क्योंकि सर्व साधारणको अर्थात् शूद्र कामशुद्धि हो सकती है और सब बहकाने- आदिको जनेऊ नहीं दिया जाता है। ब्राह्मणको वाले हैं। ( इस सारे ही उपदेशसे प्रगट है कि जनेऊ देनेका यहाँ यह अर्थ है कि मिथ्या वैदिक मतके ब्राह्मणको ही जैनी बनानेके वास्ते संस्कारके द्वारा जो उसने पहलेसे जनेऊ पहन ये बातें सिखाई गई हैं।) इस प्रकार उपदेश रक्खा था वह निकाल दिया जावे और जैनपाने पर वह मिथ्या मार्गको छोड़ता है और सच्चे धर्मके संस्कारके द्वारा उसको जनेऊ पहनाया मार्गमें लगता है । उस समय गुरु ही उसका जावे । इसी प्रकार उसका पहला विवाह भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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