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४७६. जैनहितैषी
[भाग १४ बातकी जरूरत ही आ पड़ी है कि किसी न किसी सम्यग्दृष्टिपदं बोध्ये सर्वमातेति चापरं । हेतुसे ये जैन ब्राह्मण अग्निपूजा भी करते रहें। वसुंधरापदं चैव स्वाहांतं द्विरुदाहरेत् ॥ १२२ ॥
शोक है कि जैन ब्राह्मण बनानेके जोशमें मंत्रणानेन संमंत्र्य भूमौ सोदकमक्षतं । जैनसिद्धांतोंको यहाँ तक भुला दिया गया है
क्षिप्वा गर्भमलं न्यस्तपंचरत्नतले क्षिपेत् ॥१२३ ।। कि इन जैन ब्राह्मणोंको शिक्षा देते समय केवल
त्वत्पुत्रा इव मत्पुत्रा भूयासुश्चिरजीविनः । अग्निके पूजनेकी ही आज्ञा नहीं दी है; किन्तु
इत्युदाहृत्य सस्याहे तक्षेप्तव्यं महीतले ॥ १२४ ॥ विवाह आदि संस्कारोंमें अग्नि जैसे जड़ पदार्थकी
-पर्व ४०। साक्षीकी भी आज्ञा दे डाली है । लिखा है कि
___इन श्लोकोंसे सिद्ध है कि जैनसिद्धान्तजैन ब्राह्मणको उचित है कि, वह पहले सिद्ध शास्त्रोंमें अन्य मतके जिन जिन देवताओंको भगवानकी पूजन करे, फिर तीनों अग्नियोंकी मिथ्या देवता सिद्ध किया है और जिनका पूजा करके उनकी साक्षीसे विवाहसम्बंधी पूजना लोकमूढता या देवमूढ़ता बताया है, वे क्रिया करे। इसी प्रकार कछ आगे चलकर लिखा सब ही मिथ्या देव सम्यकदृष्टि कहनेसे सच्चे
है कि, वर वधू विवाह होने पर देव और अग्निकी देव हो सकते हैं; जैसा कि उक्त श्लोकोंमें धरतीकों । साक्षीसे सात दिनके वास्ते ब्रह्मचर्य ग्रहण करें। सम्यक्दृष्टि कहकर जैनकी देवी बना लिया
है और जैन ब्राह्मणोंको उसके पूजनेकी आज्ञा सिद्धार्चनविधि सम्यक् निर्वयं द्विजसत्तमाः। कृताग्नित्रयसंपूजाः कुर्युस्तत्साक्षिता क्रियां ॥ १२८ ॥ पाणिग्रहणदीक्षायां नियुक्तं तद्वधूवरं ।
पूजन क विषयमें जैन ब्राह्मणोंको आज्ञा दी आसप्ताहं चरेद्ब्रह्मव्रतं देवाग्निसाक्षिक ॥ १३३ ॥ गई है कि डाभके आसन पर बैठ कर पूजन
करनी चाहिए और सबसे पहले अष्ट द्रव्यसे -पर्व ३८ ।
भूमिका पूजन करना चाहिए:इसी प्रकार धरतीमाताकी पूजा करनेका भी उपदेश दिया गया है। बालकके जन्म होने पर
दर्भास्तरणसंबंधस्ततः पश्चादुदीर्यतां ।
विघ्नोपशांतये दर्पमथनाय नमः पदं ॥ ६ ॥ इन जैन ब्राह्मणोंको आज्ञा दी गई है कि बच्चेकी
गंधप्रदानमंत्रश्च शीलगंधाय वै नमः । जरायु और नालको किसी पवित्र पृथिवीमें मंत्र पढ़कर गाड़ देना चाहिए । मंत्रका अर्थ यह
पुष्पप्रदानमंत्रोऽपि विमलाय नमः पदं ॥ ७ ॥ है कि हे सम्यकदृष्टि धरती माता, तू कल्याण
___ कुर्यादक्षतपूजार्थमक्षताय नमः पदं। करनेवाली हो । इस मंत्रसे मंत्रित करके उस पर
धूपाधं श्रुतधूपाय नमः पदमुदाहरेत् ॥ ८॥ जल और अक्षत डाल कर पाँच रत्नोंके नीचे
ज्ञानोद्योताय पूर्वं च दीपदाने नमः पद। गर्भका सब मल रखना चाहिए। फिर यह मंत्र
मंत्रः परमसिद्धाय नम इत्यमृतोद्धृतौ ।। ९ ।। पढ़ना चाहिए जिसका अर्थ है कि हे पृथ्वी, तेरे मंत्ररेभिस्तु संस्कृत्य यथावज्जगतीतलं । पत्रोंके समान मेरे पुत्र भी चिरंजीवि हों । यह ततोऽन्वक् पीठिकामंत्रः पठनीयो द्विजोत्तमैः॥१०॥ मंत्र पढ़कर जिस खेतमें धान्य उपजता हो
___-आदिपुराण पर्व ४०। उस में उस गर्भमलको रख देना चाहिए:- नित्यपूजनके मंत्रोंमें ऐसे मंत्र पढ़नेकी आज्ञा जरायुपटलं चास्य नाभिनालसमायुतं । दी है, जिनका अर्थ है कि अरहंतकी माताकी शुचौ भूमौ निखातायां विक्षिपेन्मंत्रमापठन् ॥१२१॥ शरण लेता हूँ, अरहंतके पुत्रकी शरण लेता हूँ।
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