Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 6
________________ ४७२ जैनहितैषी - अर्थात् अनेक दसवाँ अधिकार प्रजातंत्रसम्बन्ध है, अन्यमतियोंके साथ मिलते जुलते और प्रकारका संबंध रखते हुए भी उनके कारण अपने गुणोंको नष्ट न करना । इससे भी यही सिद्ध होता है कि जैन ब्राह्मणोंके बनाये जाते समय अन्य मतका बहुत ही ज्यादा प्रचार था । इस सारे कथनसे स्पष्ट सिद्ध है कि जैन ब्राह्मणों के बनाने में इस बात की बहुत ही ज्यादा कोशिश की गई थी कि इन नवीन जैन ब्राह्म णों को भी वे सब अधिकार प्राप्त हो जावें ज़ो प्राचीन मिथ्यात्वी ब्राह्मणों को प्राप्त हो रहे हैं, वे अधिकार चाहे न्यायरूप हों चाहे महाअन्यायरूप | साथ ही इस बातकी बड़ी सावधानी रक्खी गई थी कि, मिथ्यात्वी ब्राह्मणोंके प्रबल प्रभाव में आकर ये नवीन ब्राह्मण फिसल न जावें, या किसी प्रकार अपने पद से गिर न जावें । अर्थात् जिस प्रकार बन सके वे अपने इस नवीन पदको जो जैनी राजाओंके सहारेसे उनको प्राप्त हो गया है बनाये रक्खें और बिग - ड़ने न देवें । इस ही कारण इन अधिकारोंके वर्णनमें इस बातकी शिक्षा वहुत ही तकाजेके साथ दी गई है कि ये नवीन ब्राह्मण राजा ओंके श्रद्धानको डावाँडोल न होने दें । क्यों कि उस समय मिथ्यामतका अधिक प्रचार होनेसे जैन राजाओं के फिसलने का खटका बराबर लगा रहता था । यह सारी ही रचना निस्संदेह पंचमकालकी है, भरत महाराज समयकी नहीं; परन्तु फिर भी उक्त दसों अधिकारोंका उपदेश भरत महाराजके मुख से ब्राह्मण वर्णकी स्थापना के दिन दिलाया गया है और साथ ही इसके यह भी लिख दिया गया है कि, भरत महाराजने यह सब उपदेश उपासकाध्ययन सूत्रके ही अनुसार किया है, परन्तु द्वादशांग वाणीमें अन्य मतियोंका इतना प्रबल भय किसी तरह भी नहीं हो सकता Jain Education International [ भाग १४ है । और ऐसे महा जुल्म के अधिकारोंकी प्राप्तिका उपदेश भी जिनवाणी में सम्भव नहीं हो सकता है कि ब्राह्मणको न प्रजा ही दंड दे सके और न राजा ही, जिससे वे दोटंगे सांड़ बनकर बेरोकटोक जो चाहे जुल्म करते रहें और कोई चूँ भी न कर सके । हमारे इस विचारकी पुष्टि - कि पंचम कालमें ब्राह्मणोंका अति प्राबल्य हो जाने पर उनके प्रभावसे बचने के वास्ते उनहीका रूप देकर और उनही की क्रियायें सिखाकर जैन ब्राह्मण बनाये गये हैं- इस बात से भी होती है कि ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्तिके इस सारे कथनमें जो आदिपुराणके पर्व ३८ से ४२ तक में वर्णित है - जैन ब्राह्मणोंको धर्मका उपदेश देते हुए प्रायः उनही शब्दों का प्रयोग किया गया है जो वैदिक मतके खास पारिभाषिक शब्द हैं। श्रुति, स्मृति और वेद ऐसे शब्द हैं जो वैदिकधर्मके शास्त्रोंके वास्ते ही व्यवहार किये जाते हैं । वेदोंको श्रुति कहते हैं और मनु याज्ञवल्क्य आदि ऋषियोंकी आज्ञायें स्मृतियाँ कहलाती हैं। श्रुति, स्मृति और वेद आदि शब्द वैदिकधर्मके ऐसे टकैंसाली शब्द हैं कि स्वयं आदिपुराणके कर्ता ने भी कई स्थानों पर उनका व्यवहार वैदिकधर्म के ग्रन्थोंको ही सूचित करनेके वास्ते किया है । जैसे पर्व ३९ श्लोक में लिखा है कि श्रुि वाक्य भी विचार करने पर ठीक नहीं मालूम होते हैं; दुष्टोंके ही बनाये हुए जान पड़ते हैं:श्रौतान्यपि हि वाक्यानि संमतानि क्रियाविधौ । न विचारसहिष्णूनि दुःप्रणीतानि तानि वै ॥ १० ॥ और भी - ' तान्प्राहुरक्षरम्लेच्छा येऽमी वेदोपजीविन: ' तथा 'सोऽस्त्यमीषां च यद्वेदशास्त्रार्थमधमद्विजाः ' आदि ४२ वें पर्वके श्लोकोंसे भी स्पष्ट होता है कि हिन्दूधर्मके वेदों के लिए ही श्रुति और वेद शब्दों का प्रयोग किया जाता है; किसी जैन शास्त्र के लिए नहीं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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