Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 08 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 9
________________ अङ्क ८] पुस्तकालय और इतिहास। ग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह । प्रायः सभी जैन- प्रयत्न करना चाहिए । इस प्रयत्नसे ऐतिहासिक ग्रन्थोंके अन्तमें ग्रन्थकर्ताका, उसकी गुरुपरम्पराका क्षेत्रमें बड़ा काम होगा। और ग्रन्थ लिखने-लिखानेवालों आदिका परिचय प्रतिमाओंके लेखोंका संग्रह यदि दिगम्बर दिया हुआ रहता है । ये परिचय भी इतिहासके जैनतीर्थक्षेत्रकमेटीकी ओरसे कराया जाय, तो बहुत बड़े साधन हैं । अतएव इनका संग्रह भी बहुत सुगमतासे हो सकता है । ये लेख उसके कई भागोंमें तैयार कराया जाना चाहिए। काममें भी आ सकते हैं, इस लिए यह उसका डा० भाण्डारकर, पिटर्सन, आदिकी रिपोर्टोसे काम भी है । हमें आशा नहीं है कि उसके इस कार्यमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। मुकद्दमेवाज़ कार्यकर्ता इस अच्छे कार्यको सम्पा यह बड़ी प्रसन्नताकी बात है कि हमारे दन कराना आवश्यक समझेंगे; परन्तु वे करें या श्वेताम्बरी भाइयोंकी ओरसे इस प्रकारका न करें, हम अपने सूचना करनेरूप कर्तव्यका उद्योग होने लगा है। हमारे पाठकोंके परिचित पालन किये देते हैं। श्रीयुत मुनि जिनविजयजी इस समय ' प्राचीनजैनलेखसंग्रह ' नामक ग्रन्थका सम्पादन कर . जैन इतिहासके हम दो भाग करते हैं । एक रहे हैं। उसके दो भाग हैं, एक प्राकृतभाग बाह्य और दूसरा अन्तरंग । पहले भागमें महावीर और दूसरा संस्कृतभाग । पहले प्राकृत भा । भगवानसे लेकर अबतकका शृंखलाबद्ध इतिहास गके भी दो हिस्से हैं जिनमेंसे एक रहे रहेगा । जैनधर्मका कब कब किन किन देशोंमें हिस्सा प्रकाशित हो चुका है। इसमें खण्डगिरि प्रचार हुआ, उसम हान प्रचार हुआ, उसमें हानि और वृद्धि कब कब उदयगिरिके महाराजा खारवेलके लेख और उनः हुई, इसके पालनेवाले कौन कौन राजा हुए, राजाका विस्तृत विवेचन है । दूसरे हिस्सेमें मथुराके आका धम, - ओंका धर्म यह कब तक रहा और कबसे केवल शिलालेखों तथा प्रतिमालेखोंका संग्रह और विव. प्रजाका धर्म बन गया, किन किन राजाओंने रण रहेगा। यह भाग भी लगभग तैयार हो गया , - इसकी उन्नति की और किन किनने इसे हानि है । संस्कृत लेखोंका भाग बहुत बड़ा है और पहुँचाई, इसमें कौन कौन भेद कब कब हुए, वह कई हिस्सोंमें प्रकाशित होगा । गुजराती - प्रत्येक भेदकी शुरूसे अबतककी गुरुपरम्परा, भाषामें श्वेताम्बर सम्प्रदायके साधओं बनाये जुदी जुदी भाषाओंमें जैनधर्मके साहित्यकी हुए सैकड़ों ग्रन्थ हैं, जो रासा कहलाते हैं। इन उत्पत्ति वृद्धि और पुष्टि, बिहार-बंगाल-उड़ीसा रोसाओंकी प्रशस्तियोंका एक विशाल संग्रह मवे. आदि प्रान्तॉमसे जैनधर्मके लुप्त हो जानेके बाहरी तांबर जैन कान्फरेंसकी ओरसे प्रकाशित होगा। कारण, आदि सब बातोंका समावेश इस भागमें इसका सम्पादन हेरल्ड-सम्पादक श्रीयुत मोहन- . ' होगा । शिलालेख, दानपत्र, प्रशस्तियाँ, विदेशी लाल दलीचन्दजी देसाई बी. ए., एल एल. बी. प पर्यटकोंके ग्रन्थ, जैनेतर ग्रन्थोंके उल्लेख आदि कर रहे हैं । कलकत्तेके श्रीयुत बाबू पूर्णचन्द्रजी . M साधनोंसे यह बाह्य इतिहास तैयार हो जायगा। दूसरे भागमें जैनधर्मके अन्तरंगका-उसके नाहर एम. ए., एल एल. बी. नामके सज्जन 7 हृदयका--इतिहास रहेगा। इसका तैयार करना श्वेताम्बर प्रतिमाओंके लेखोंका संग्रह कर रहे बहुत बड़े परिश्रमका काम है और यही सबसे हैं। उसके कई छपे हुए फार्म हमने स्वयं देखे अधिक महत्त्वका है । यह सैकड़ों विद्वानोंके हैं। हमारे दिगम्बरी भाइयोंको भी इस दिशामें अनवरत अध्ययन और अध्यवसायसे बन सकेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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