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जैनहितैषी -
रानी सारन्धा ।
( लेखक - श्रीयुत प्रेमचन्दजी । )
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[ १ ] अधेरी रात के सन्नाटे में धसान नदी चटा 'नोंसे टकराती हुई ऐसी सुहावनी मालूम होती थी जैसे घुमर घुमर करती हुई चक्कियाँ नदी के दाहिने तट पर एक टीला है। उस पर एक पुराना दुर्ग बना हुआ है जिसको जंगली वृक्षोंने घेर रक्खा है । टीलेके पूर्व की ओर एक छोटासा गाँव है । यह गढ़ी और गाँव दोनों एक बुंदेला सरदारके कीर्तिचिह्न हैं । शताब्दियाँ व्यतीत हो गई, बुन्देलखण्डमें कितने ही राज्योंका उदय और अस्त हुआ, मुसलमान आये और गये, बुंदेला राजे उठे और गिरे, कोई गाँव, कोई इलाका, ऐसा न था जो इन दुर्व्यवस्थाओंसे पीड़ित न हो, मगर इस दुर्ग पर किसी शत्रु की विजय पताका न लहराई, और इस गाँव में किसी विद्रोहका पदार्पण न हुआ । यह उसका सौभाग्य था ।
अनिरुद्ध सिंह वीर राजपूत था । वह जमाना ही ऐसा था जब प्राणीमात्रको अपने बाहुबल और पराक्रमहीका भरोसा था। एक ओर मुसलमान सेनायें पैर जमाये खड़ी रहती थीं, दूसरी ओर बलवान् राजे अपने निर्बल भाइयोंके गले घोटने पर तत्पर रहते थे । अनिरुद्धसिंहके पास सवारों और पियादों का एक छोटासा, मगर सजीव, दल था । इसीसे वह अपने कुलकी और
दाकी रक्षा किया करता था । उसे कभी चैन से बैठना नसीब न होता था । तीन वर्ष पहले उसका विवाह शीतलादेवी से हुआ, मगर अनिरुद्ध विहारके दिन और विलासकी रातें पहाड़ोंमें काटता था और शीतला उसके जानकी खैर मनाने में । वह कितनी वार पतिसे अनुरोध कर चुकी थी, कितनी बार उसके पैरों
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[ भाग १३
पर गिर कर रोई थी, कि तुम मेरी आँखोंसे दूर न हो, मुझे हरिद्वार ले चलो, मुझे तुम्हारे साथ वनवास अच्छा है, यह वियोग अब नहीं सहा जाता । उसने प्यारसे कहा, जिसे कहा, विनय की, मगर अनिरुद्ध बुंदेला था । शीतला अपने किसी हथियार से उसे परास्त न कर सकी । [ २ ]
अँधेरी रात थी । सारी दुनिया सोती थी, मगर तारे आकाश पर जागते थे । शीतला देवी पलङ्ग पर पड़ी करवटें बदल रही थी और उसकी नन्द सारंधा फर्श पर बैठी हुई मधुर स्वरसे गाती थी:
विन रघुवीर कटत नहिं रैन । शीतलाने कहा- जी न जलाओ । क्या तुम्हें भी नींद नहीं आती ?
सारन्धा -- - तुम्हें लोरी सुना रही हूँ । शीतला — मेरी आँखोंसे तो नींद लोप हो गई । सारन्धा - किसीको ढूँढ़ने गई होगी । इतनेमें द्वार खुला और एक गठे हुए बदन के रूपवान् पुरुषने भीतर प्रवेश किया । यह अनिरुद्ध था । उसके कपड़े भीगे हुए थे, और बदन पर कोई हथियार न था । शीतला चारपाई से उतर कर जमीन पर बैठ गई ।
सारन्धाने पूछा- भैया, यह कपड़े भीगे क्यों हैं ?
अनिरुद्ध – नदी पैर कर आया हूँ । सारन्धा - हथियार क्या हुए ? अनिरुद्ध — छिन गये । सारन्धा - और साथके आदमी ? अनिरुद्ध - सबने वीरगति पाई । शीतलाने दबी जबानसे कहा - ' - " ईश्वरने ही कुशल किया- " मगर सारन्धाके तीवरों पर बल पड़ गये और मुखमण्डल गर्वसे सतेज हो गया । बोली - " भैया ! तुमने कुलकी मर्यादा खो दी । ऐसा कभी न हुआ था । "
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