Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 28
________________ ३५० जैनहितैषी [भाग १३ छत्रसाल-मुझको। फिर शत्रुओंकी खबर लूंगा। लोकिन सारन ! सच " तुम इसे पूरा कर दिखओगे ?" बताओ इस पत्रके लिए क्या देना पड़ा ?" " हाँ, मुझे पूर्ण विश्वास है।" रानीने कुण्ठित स्वरसे कहा-बहुत कुछ । राजा-सुनूं ? " अच्छा जाओ, परमात्मा तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करे।" रानी-एक जवान पुत्र । राजाको बाण सा लगा। पूछा-कौन ? छत्रसाल जब चला तो रानीने उसे हृदयसे । | अंगदराय ? लगा लिया और तब आकाशकी ओर दोनों रानी-नहीं। हाथ उठाकर कहा-दयानिधि, मैंने अपना तरुण और होनहार पुत्र बुंदेलोंकी आनके भेट कर राजा-रतनसाह ? दिया। अब इस आनको निभाना तुम्हारा काम रानी-नहीं। है । मैंने बड़ी मूल्यवान वस्तु अर्पित की है। इसे राजा-छत्रसाल ? स्वीकार करो। रानी-हाँ। [८] जैसे कोई पक्षी गोली खाकर परोंको फड़फदूसरे दिन प्रातःकाल सारन्धा स्नान करके डाता है और तब बेदम होकर गिर पड़ता है. थालमें पूजाकी सामग्री लिये मन्दिरको चली। उसी भाँति चम्पतराय पलँगसे उछले और फिर उसका चेहरा पीला पड़ गया था, और आँखों अचेत होकर गिर पड़े। छत्रसाल उनका परम तले अँधेरा छाया जाता था। वह मन्दिरके द्वार प्रिय पुत्र था। उनके भविष्यकी सारी कामनायें पर पहुंची थी, कि उसके थालमें बाहरसे आकर उसी पर अवलम्बित थीं। जब चेत हुआ तो एक तीर गिरा। तीरकी नोक पर एक कागजका बोले-“सारन, तुमने बुरा किया। अगर छत्रसाल पुर्जा लिपटा हुआ था। सारन्धाने थाल मन्दिरके मारा गया तो बुंदेला वंशका नाश हो जायगा।" चबूतरे पर रख दिया, और पुर्जेको खोलकर देखा अँधेरी रात थी। रानी सारन्धा घोड़े पर सवार तो आनन्दसे चेहरा खिल गया । लेकिन यह चम्पतरायको पालकीमें बैठाये किलेके गुप्त मार्गसे आनन्द क्षणभरका मेहमान था । हाय ! इस निकली जाती थी। आजसे बहुत काल पहले पुजेंके लिए मैने अपना प्रिय पुत्र हाथसे खो दिया एक दिन ऐसी ही अँधेरी, दुःखमय रात्रि थी। है । कागजके टुकड़ेको इतने महँगे दामों किसने तब सारन्धाने शीतलादेवीको कुछ कठोर वचन लिया होगा? कहे थे । शीतलादेवीने उस समय जो भविष्यवाणी मंदिरसे लौटकर सारन्धा राजा चम्पतरायके की थी वह आज पूरी हुई । क्या सारन्धाने उसका पास गई और बोली-“प्राणनाथ! आपने जो जो उत्तर दिया था वह भी पूरा होकर रहेगा ? वचन दिया था, उसे पूरा कीजिए ।” राजाने [८] चौंक कर पूछा-" तुमने अपना बादा पूरा कर मध्याह्नकाल था। सूर्यनारायण सिर पर आकर लिया ?" रानीने वह प्रतिज्ञापत्र राजाको दे अग्निकी वर्षा कर रहे थे। शरीरको झुलसानेवाली दिया । चम्पतरायने उसे गौरसे देखा फिर बोले- प्रचण्ड प्रखर वायु वन और पर्वतोंमे आग लगाती "अब मैं चलूंगा और ईश्वरने चाहा तो एक बेर फिरती थी। ऐसा विदित होता था मानों अग्निदेवकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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