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अङ्क ८]
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विविध प्रसङ्ग।
अर्थात् बालके आगेकी नोकके भी बराबर परि- जल्दी और बड़े बड़े ग्रन्थोंके छपानेका प्रबन्ध नहीं ग्रह साधु ग्रहण नहीं करता । वह अपने हाथरूपी किया जा सकता है। संस्कृत ग्रन्थोंकी खप भी पात्रमें अन्यका दिया हुआ भोजन एक स्थानमें खड़े बहुत थोड़ी होती है । जबतक धनियों और होकर करता है । अब मिलान कीजिए कि, कहाँ धर्मात्माओंका इसे सहारा न हो, तबतक इस कार्यमें तो यह कठिन आशा और कहाँ वह शिथिलता उन्नति नहीं हो सकती । इस समय प्रत्येक ग्रन्थकी कि यदि शीत आदि सहन नहीं किया जाय, लज्जा केवल ५०० प्रतियाँ छपाई जाती हैं । यदि प्रत्येक नहीं जीती जा सके तो कपड़े पहनकर अपवाद- ग्रन्थकी दशदश प्रतियाँ खरीदनेवाले २० और लिङ्गधारण कर लो । मूल ग्रंथकर्ता जिसे अमार्ग पाँच पाँच प्रतियाँ खरीदनेवाले ४० स्थायी ग्राहक या धर्मसे बाहर बतलाते हैं उसे आप अपवाद लिङ्ग ही हमें मिल जायँ, जो यह कार्य बड़ी अच्छी तरह कहनेकी धृष्टता कर रहे हैं । अपनी कायरता और चलता रहे-और इसके द्वारा सैकड़ों ग्रन्थोंका , कमजोरीको मुनियोंकी सिंहवृत्तिकी चादरके नीचे उद्धार हो जाय । इसके लिए हमने कई बार प्रार्थछुपाना चाहते हैं।
नायें की; परन्तु अभी तक बहुत ही थोड़े सज्जनोंने __इस टीकासे एक बात यह भी मालूम हुई कि, इस ओर ध्यान दिया है । आशा है कि दशलक्षण कोई वसन्तकीर्ति स्वामीने इस मार्गको चलाया था। पर्वके दिनोंमें हमारे पाठक इस विषयमें अवश्य ही चित्तौरकी गद्दीके भट्टारकोंकी नामावलीमें वसन्त- कुछ न कुछ प्रयत्न करेंगे । यह करनेकी तो आवकीर्तिका नाम आता है, और उनका समय १२६४ श्यकता ही नहीं है कि इस मालाके तमाम ग्रंथ बतलाया जाता है । मालूम नहीं, यह समय कहाँ केवल लागतके मूल्य पर बेचे जाते हैं। तक ठीक है और ये श्रुतसागर सूरिके उल्लेख किये लघीयस्त्रयादिसंग्रह, सागरधर्मामृत सटीक, विक्रान्त हुए ही वसन्तकीति हैं या और कोई । यदि ये ही कौरवनाटक, पार्श्वनाथचरितकाव्य, मैथिलीकल्याण हों, तो इस मार्गका पता १३ वीं शताब्दितक नाटक, आराधनासार सटीक और जिनदत्तचरित्र तो लगता है, यद्यपि हमारा विश्वास है कि यह ये सात ग्रन्थ तो पहले छप चुके थे । नीचे लिखे . शिथिलाचार और भी कई शताब्दियोंसे चला आ चार ग्रंथ अभी हाल ही छपकर तैयार हुए हैं। रहा था।
८प्रद्युम्नचरित । यह बिलकुल अप्रसिद्ध । __आशा है, इससे हमारे पाठक समझ जावेंगे कि ग्रन्थ है। सुप्रसिद्ध राजा भोजके पिता सिन्धुराजके भट्टारकोंने अपनी रचनाओंमें अपनी शिथिलताका दरबारके सभ्य और महामहत्तम 'पप्पट ' नामके, भी पोषण किया है और खूब किया है। अवका- कोई धनिक थे। उनके गुरु श्रीमहासेन नामक कवि शके अनुसार हम इस प्रकारके और भी प्रमाण उप- इसके रचयिता हैं । उपलब्ध प्रद्युम्नचरितों से यह स्थित करेंगे।
सबसे प्रौढ और सुन्दर है । यह केवल चरित ही ३ माणिकचन्द ग्रन्थमाला। नहीं उच्चश्रेणीका एक काव्य है। इसमें चौदहसर्ग स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्दजीकी इस याद. है । २३० पृष्ठोंमें यह समाप्त हुआ है। मूल्य गारीका काम धीरे धीरे पर सुव्यवस्थित रूपसे चल इसका केवल आठ आने है। रहा है । धीरे धीरे चलनेका कारण यह है कि अभी ९ चारित्रसार । गंगवंशीय राजा राचमल्लके तक इसकी ओर समाजका चित्त जितना आकर्षित सुप्रसिद्ध मंत्री और सेनापति चामुण्डरायने इस होना चाहिए, उतना नहीं हुआ है और ग्रन्थमालाके ग्रन्थकी रचना की है। ये वही चामुण्डराय हैं फण्डमें इतनी थोड़ी रकम है कि उसके भरोसे जल्दी जिन्होंने बाहुबलि स्वामीकी सुप्रसिद्ध मूर्तिकी प्रतिष्ठा
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