Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ अङ्क ८] विविध प्रसङ्ग । ना 'एकान्त' है । जैसे सृष्टिकी ये सब वस्तुयें पुरु- दायके परम्परागत प्रचलित भावोंमें उससे अधिक षहीके रूप हैं, ये सब नित्य ही हैं अथवा अनि- शिथिलताका प्रवेश हो नहीं सकता था-वहाँ इससे त्य ही हैं । वस्त्रधारी साधु निग्रन्थ हैं, केवली कवला- अधिक गुंजाइश नहीं थी। हार करते हैं, स्त्रीको मोक्ष होता है, इत्यादि बातें भद्रबाहुसंहिताकी परीक्षाके तीसरे लेख मानना — विपरीत ' है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र ( अंक १, पृष्ठ ६९-७० ) में पाठक पढ़ चुके मोक्षमार्ग है या नहीं, इस प्रकार दिकोटिगत बुद्धि हैं कि संहिताके कर्ताने पंचम कालमें दिगम्बर मुनिरखना ' संशय ' है । सारे देवों और सारे धर्मोको योंका निषेध किया है । लिखा है-" इस . समान देखना 'वैनायक ' है। हित और अहितकी पंचम कालमें जो कोई मुनि दिगम्बर हुआ भ्रमण परीक्षाका अभाव ' आज्ञानिक ' है । पूज्यपाद करता है, वह मूढ है और उसे संघसे बाहर समझना स्वामीने सर्वार्थसिद्धिटीकामें भी बिलकुल यहीके चाहिए । वह यति भी अवन्दनीय है जो पांच यही वाक्य दिये हैं। इससे सिद्ध है कि, दिगम्बर- प्रकारके वस्त्रोंसे रहित है, अर्थात् वह दिगम्बर मुनि दृष्टि से श्वेतांबर सांशयिक नहीं, किन्तु विपरीत मिथ्या- भी अपूज्य है जो कपास, ऊन, रेशम आदिके वस्त्र दृष्टि हैं । विद्वानोंको इस विषयमें अपने विचार नहीं पहनता है।" यह कहनकी आवश्यकता नहीं प्रकट करना चाहिए। कि इस संहिताके लेखक एक वस्त्रधारी भट्टारक थे, - २ भट्टारकोंके साहित्यमें और वे अपने वस्त्रयुक्त मार्गको श्रेष्ठ सिद्ध करना शिथिलाचार। । चाहते थे। आज हम अपने पाठकोंको एक और पण्डितोंके मुँहसे अकसर यह बात सुनी जाती भट्टारक महाराजके वाक्य सुनाते हैं, जिनमें इस है कि भट्टारक स्वयं भले ही शिथिल हो गये हों: शिथिलाचारका खुले शब्दोंमें प्रतिपादन किया परन्तु उन्होंने जितने ग्रन्थ आदि बनाये हैं, उनमें गया है। कोई बात ऐसी नहीं लिखी है, जो मूल दिगम्बर संप्र- तत्वार्थसूत्रळ श्रुतसागरी टीका, यशस्तिलक दायसे विरुद्ध हो-उन्होंने कोई उत्सूत्र कथन नहीं चम्पूटीका, सहस्रनामटीका, आदि अनेक ग्रंथोंके किया। पहले हमारा भी यही खयाल था, परन्तु कर्ता श्रुतसागरसूरि विक्रमकी सोलहवीं शताब्दिमें अब भट्टारकोंके साहित्यका अधिकाधिक परिचय होनेसे हुए हैं । आप विद्यानन्द भट्टारकके शिष्य थे। यह निश्चय होता जाता है कि इस बातमें कोई तथ्य आपने अपने नामके साथ उभयभाषाकविचक, नहीं है । भट्टारकोंने अवश्य ही गोलमाल किया है वर्ती, कलिकालसर्वज्ञ जैसे बड़े बड़े पद लगा रक्वे और अपने चरित्रको किसी न किसी प्रकारसे अच्छा हैं, जिससे मालूम होता है कि आप एक प्रसिद्ध बतलानेका प्रयत्न किया है। और यदि उन्होंने ऐसा र विद्वान् थे । भगवत्कुंदकुन्दाचार्यके षट्पाहुड़ किया है, तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । ग्रंथ पर भी आपने एक संस्कृत टीका लिखी है । - इस टीकाके विषयमें हम एक स्वतंत्र लेख लिखना आश्चर्य तो तब होता, जब वे अपने शिथिल चरित्र चाहते हैं, जिससे पाठकोंको मालूम होगा कि यह को शिथिल ही बतलाते जाते । हाँ, यह अवश्य है कैसी टीका हे । यहाँ हम उसमें से केवल दर्शनकि उन्होंने जो शिथिलाचारका पोषण किया है, पाहडकी २४ वीं गाथाकी टीकाको उद्धृत करते वह उतना ही किया है, जितना कि किसी तरह खींच हैं। मूल गाथा यह है:खाँचकर सिद्ध किया जा सके । पर जितने अंशोंमें सहजप्पण्णं रूवं दिलु जो मण्णए ण नहीं किया है, सो इस लिए नहीं कि वह उन्हें मच्छरिओ । सो संजमपडिवण्णो मि. पसन्द नहीं था; किन्तु इस लिए कि दिगम्बरसम्प- च्छाइही हवइ एसो॥२४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56