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अङ्क ८ ]
रहा था, उसीको ग्रन्थकर्ताने इन्द्रके मुँहसे व्यक्त कराया है और जान पड़ता है कि इस प्रकारका अधिकार ग्रन्थकर्ताओंको बहुत समय से प्राप्त है ।
आदिपुराणका अवलोकन |
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प्रथमानुयोग विषै जे मूलकथा
जैसा का
पण्डितवर टोडरमल्लजीने अपने मोक्षमार्ग - प्रका. शक ग्रन्थमें प्रथममानुयोगके स्वरूपका विचार करते हुए हमारे इन्हीं भावको इस प्रकार प्रकट किया है:हैं, ते तो जैसी हैं तैसी ही निरूपित हैं । अर तिन विषै प्रसंग पाय व्याख्यान हो है सो कोई तौ तैसा हो है, कोई ग्रन्थकर्ताका विचार अनुसार होय, परन्तु प्रयोजन अन्यथा न हो है । ताका उदाहरण - जैसे तीर्थंकर देवनिके कल्याणनि विषै इन्द्र आया, यह कथा तो सत्य है । बहुरि इन्द्र स्तुति करीताका व्याख्यान किया, सो इन्द्र तौ और ही प्रकार स्तुति लिखी थी, और यहाँ ग्रन्थकर्त्ता और ही प्रकार स्तुति कीनी लिखी । परन्तु स्तुतिरूप प्रयोजन अन्यथा न भया । -पृष्ठ ३८३ ।
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" इसी तरहका एक दूसरा प्रसंग आदिपुराणके १८ वें पर्वमें भी है । आदिनाथ भगवानके दीक्षा ले लेने पर उनके साथी चार हजार राजाओंने भी दीक्षा ले ली। परन्तु वे लोग दीक्षाके अभिप्रायको कुछ नहीं समझे थे, इस लिए भगवान् तो ६ मही"नेका उपवास धारण करके ध्यानस्थ हो गये,
भूखके मारे दोही तीन महीने में व्याकुल हो गये । जब भूख प्यास नहीं सही गई, तब कन्द-मूल-फल अदि खाने के लिए वनमें जाने
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लगे और प्यास बुझानेके लिए तालाबोंकी ओर दौड़ने लगे; परन्तु वनदेवताने उन्हें रोका और कहा कि तुमको इस दिगम्बररूपमें ऐसा करना उचित नहीं है । यह सुनकर वे डर गये और उन लोगों ने तरह तरह के वेष धारण कर लिये । किसीने पेड़ोंकी छालें पहन लीं, किसीने लँगोटी लगा ली, किसी भस्म रमा ली, कोई जटाधारी, दंडी ड बन गये । भरतमहाराजके डरके मारे वे अपने अपने घरों को भी नहीं जा सके और वहीं झोपड़ी बनाकर रहने लगे। ये ही आगे पाखंडियोंके मुखिया बन गये । भगवान्का पोता मरीचि भी इनमें था । उसने अनेक अपसिद्धान्तोंका उपदेश देकर मिथ्यात्वकी - वृद्धि की । योगशास्त्र ( पतञ्जलिका दर्शन ) और मोहित होकर संसार सम्यग्ज्ञानसे पराङ्मुख हुआ । कापिल तंत्र ( सांख्यशास्त्र ) को उसीने रचा, जिनसे
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यथाः
उसका
इससे अच्छी तरह सिद्ध हो गया कि इन्द्रके द्वारा भगवानकी जो स्तुति कराई गई है, इसमें सांख्यशास्त्र और योगशास्त्र के कर्ताको सारा व्याख्यान ग्रन्थकर्ताकी निजकी चीज है । भगवान् ऋषभदेव के समय में बतलाना, जान पड़ता आदिनाथ भगवानके समवसरणमें उसने ये ही शब्द है, ग्रंथकर्ताकी निजकी कल्पना है। क्योंकि इन नहीं कहे थे। उस समय श्वेताम्बर धर्म के अस्तित्व दोनोंके कर्ता अधिक से अधिक २२००-२३०० Satara निर्मूल है । वर्ष पहले हो सकते हैं, परन्तु जैनग्रन्थोंके अनुसार अबसे अर्को खर्बो वर्ष पहले हुए हैं। मूल कथा इतनी है कि, भगवान ऋषभदेव के समय में बहुतसे राजा भ्रष्ट हो गये थे और उन्होंने तरह तरहके मिथ्यात्व फैला दिये थे । इसीको कवियोंने अपनी अपनी कल्पना के अनुसार पल्लवित किया है और मतोंके नाम अपनी तरफ से मिला दिये हैं ।
सबसे पहले ' पउमचरिय' नामक प्राकृत ग्रन्थमें हमने इस कथा को देखा । यह ग्रन्थ वीर
मरीचिश्च गुरोर्नप्ता परिव्राड्भूयमास्थितः । मिथ्यात्ववृद्धिमकरोदपसिद्धान्तभाषितैः ॥ ६१ ॥ तदुपज्ञमभूद्योगशास्त्रं तंत्रं च कापिलम् । येनायं मोहितो लोकः सम्यग्ज्ञानपराङ्मुखः ॥ ६२॥ -पर्व १८ |
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