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जैनहितैषी -
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मि० संवत् ५३० का बना हुआ है। उसमें सिर्फ इतना लिखा है कि ' वे पेड़ों की छाल, लँगोटी, आदि पहनवाले, फलाहारी, स्वच्छन्दमतविकल्पी, अनेक तरहके तापसी हो गये । ' उसके बादका ग्रन्थ पद्मपुराण है। उसमें आदिपुराणकी ही कथाको कुछ संक्षेपमें लिखा है और अन्तमें कहा है कि इन सबमें महामानी मरीचि ( भगवान् का पोता ) था । उसने भगवें वस्त्र पहरकर परिव्राजकका मत प्रकट किया । ' इसके बाद पुन्नाटसंघीय जिनसे - नका हरिवंशपुराण बना है । उन्होंने इस कथा के मतसम्बन्धी अंशको सबसे अधिक पल्लवित किया • है और ( कलकत्ते में प्रकाशित हुए हिन्दी अनुवा दके अनुसार ) नैयायिक, वैशेषिक, शब्दाद्वैतवादी, चार्वाक, सांख्य और बौद्धधर्म तकको भी उन भ्रष्ट हुए राजाओं के द्वारा चला हुआ बतलाया है । इनमें कमसे कम बौद्धधर्मको हमारे सभी पाठक जानते हैं कि, वह महावीर भगवान् के ही समय में स्थापित हुआ है और इससे पहले उसका अस्तित्व नहीं था । यह सर्वसम्मत बात हैं।
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ऐसा मालूम होता है कि मूल बात केवल यह थी कि उस समय उन लोगोंने तरह तरहके तपस्वियों के वेष धारण कर लिये । इसी बातको जुदा जुदा ग्रन्थकारेंनेि पल्लवित करके, इतिहास के सामञ्जस्यका ख्याल न रखकर, जुदा जुदा रूपमें वर्णन कर दिया है। मूल बात सबमें एक ढंगसे कही गई है, पर बढाई हुई बातों में भिन्नता आ गई है । आशा है कि पाठकगण उक्त कथनसे हमारे आशयको अच्छी तरह समझ गये होंगे ।
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आगामी अंकमें हम इसी विषय में और कुछ लिखने का प्रयत्न करेंगे । यदि कोई सज्जन इसके प्रतिवाद में कुछ लिखना चाहें तो सप्रमाण और संयत भाषा में लिखनेकी कृपा करें ।
[ भाग १३
विविध प्रसङ्ग ।
१ क्या श्वेताम्बर सांशयिक हैं ? पिछले अंक में दर्शनसारविवेचना में हमने लिखा था कि दर्शनसारके कत्तीने और गोम्मटसारके टीकाकारोंने श्वेताम्बर सम्प्रदायको सांशयिक कैसे माना है सो समझमें नहीं आता । क्योंकि विरुद्धानेककोटिस्पर्शि ज्ञानको संशय कहते हैं और श्वेताम्बर सम्प्रदायका इस प्रकारका कोई सिद्धान्त नहीं है । वे यह नहीं मानते हैं कि न मालूम स्त्रियाँ मोक्ष प्राप्त करती हैं या नहीं, केवली कवलाहार करते हैं या नहीं । ये बातें उनके यहाँ निश्चयरूपसे मानी हुई हैं । वे दिगम्बर सम्प्रदायकी दृष्टिसे विपरीतमति हो सकते हैं; न कि सांशयिक । उक्त विवेचना के छप जाने पर हमने भट्टाकलङ्कदेवकृत राजवार्तिकको देखा तो मालूम हुआ कि हमारी शंका यथार्थ थी । उसमें वेताम्बर सम्प्रदायको ' विपरीत ' ही माना है, सांशयिक नहीं । आठवें अध्यायके पहले सूत्र के व्याख्यानमें देखिए, इस प्रकार लिखा है:
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अथवा पञ्चविधं मिथ्यादर्शनमवगन्तव्यं - एकान्तमिथ्यादर्शनं, विपरीतमिथ्यादर्शनं, संशयमिथ्यादर्शनं, वैनयिकमिथ्यादर्शनं, आज्ञानिक मिथ्यादर्शनं चेति । तत्रेदमेवेत्थमेवेति धर्मिधर्मयोरभिनिवेश एकान्तः । पुरुष एवेदं सर्वं इति वा, नित्य एव वा अनित्य एवेति । सग्रन्थो निर्मन्थः केवली कवलाहारी स्त्री सिद्धयतीत्येवमादिर्विपर्ययः । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि संशयः । सर्वदेवतानां सर्वसमयानां । च मोक्षमार्गः किं स्याद्वा नवेति मतिद्वैतं समदर्शनं वैनयिकत्वं । हिताहितपरीक्षावि रह आज्ञानिकत्वम् । ”
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अर्थात् एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक और आज्ञानिक ये पांच मिथ्यादर्शन हैं । यही है, ऐसा ही है, इस प्रकार धर्मी और धर्ममें आग्रहबुद्धि- रख
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