Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 49
________________ अङ्क ८] - विविध प्रसङ्ग। ३७१ वेषभूषाभक्त भाई कुछ शिक्षा ग्रहण करेंगे । “पश्चि- स्वास्थ्यप्रद है।" जिस समय सारा देश विलायती मीय सभ्यताके सब प्रकारके सौन्दर्य पर अच्छी तरह चालढाल, वेश-भूषाके आदिकी प्रबल बहियामें विचार करनेके बाद मैं अपने जातीय लिबासका और बहा जा रहा है, उस समय क्या महात्मा गाँधीके पोशाकका पक्षपाती बना हूँ। मैं इस समय चप्पारनमें उक्त विचार कुछ प्रभाव डालनेमें समर्थ होंगे ? जिस पोशाकको पहन रहा हूँ, भारतमें रहते समय मैं पालो मटिर उतारना सदा यही पोशाक पहनता रहा हूं । काठियावाड़के । बाहरकी अदालतोंमें, तथा अन्यत्र जानेके समय और श्वेताम्बरोंके मन्दिर में अवश्य ही मैंने दो चार बार ( सो भी बहुत समय दिगम्बर प्रतिमायें। पहले ) मैंने सर्वसाधारणकी भाँति अधसाहवी पोशाक गवालियर राज्यके शिवपुरकलाँ नामक स्थानसे पहनी थी। आजसे २१ वर्ष पहले ठीक इसी हमारे पास श्रीयुत गंभीरमलजी अजमेराने एक पत्र पोशाकमें मैं काठियावाडकी अदालतोंमें हाजिर होता भेजा है जिसका सारांश यह है--" यहाँ दिगम्वर था। अब तक मैंने केवल एक परिवर्तन किया है। सम्पदायके दो मन्दिर है-एक तेरापंथी और दूसरा वह यह कि अब मैं स्वयं कपड़े बुनता और खेती वीसपंथी । श्वतांबर सम्प्रदायके भी दो मन्दिर हैं करता हूँ। मैंने स्वदेशीका व्रत ग्रहण किया है। जिनमेंसे एक किलेमें है । इस किलेके श्वेताम्बरी अपने कपड़ोंको मैं स्वयं सीं लेता हूँ या मेरे साथी मन्दिरमें दिगम्बरियोंकी भी ७-८ प्रतिमायें है सी देते हैं। मि० अरविन कहते हैं कि मैं केवल एक जिनके पूजन पक्षाल आदिका प्रबन्ध श्वेताम्बरोंके विलक्षणता दिखलानेके लिए चम्पारन प्रजाके सामने अधिकारमें है । दिगम्बरी भाई वहाँ दर्शन पूजन समयोपयोगी सादी पोशाकमें निकलता हूँ परन्तु यह आदिके लिए नहीं जाते । इसी प्रकार दिगठीक नहीं है। असल बात यह है कि मैं भारतवासि- म्बरी बीसपंथी मन्दिरमें श्वेताम्बरोंकी भी ७-८ योंकी प्रकृतिके अनुसार जातीय पोशाक पहनता प्रतिमायें है और उनके पूजन प्रक्षालको श्वताम्बरीहूँ। मेरी रायमें विलायती पोशाककी नकल भी नहीं आते । हाँ, श्वेताम्बरी भाई भादों सदी करना हमारी अवनतिका, हीनताका और १० को तेरापंथी और बीसपंथी दोनों मंदिरोंमें दुर्बलताका परिचायक है। हमारे समान सीधी धूप खेने के लिए आया करते हैं । ये प्रतिमायें सादी, कौशलसम्पन्न और सस्ती पोशाक पथिवीकी दोनोंके मंदिरों में कोई सौ डेड़ सौ वर्षसे इसी तरह और किसी भी जातिकी नहीं । इससे स्वास्थ्य- चली आई हैं । इन प्रतिमाओं को बदल लेनेके विषविज्ञानका उद्देश्य सिद्ध होता है । अँगरेज लोग यदि यमें एकबार भट्टारकजी और जतीजीके बीचमें व्यर्थके अहंकार और अमूलक प्रेष्टिज' की माया चर्चा हुई थी। उस समय यह तय हुआ था कि परित्याग कर सकते, तो उन्होंने बहुत दिन पहले ही तुम्हारी तुम ले लो और हमारी हमको दे दो। परन्तु भारतीय पहनाव ओढावका व्यवहार करना शुरू एक पक्ष कहने लगा कि पहले तुम हमारी प्रतिमा कर दिया होता । इस विषयमें मैं इतना और कहना हमारे मन्दिरमें रख जाओ और फिर अपनी ले चाहता हूँ कि मैं चम्पारनमें सब जगह नंगे पैर जाओ । दूसरा पक्ष भी इसीका अनुवाद करने लगा। नहीं घूमता । मैने पवित्रताके खयालसे जूता पह- इस तरह मैं पहले और मैं पहलेमें ही यह बात नना छोड़ दिया है तथा उससे अनुभव किया है रह गई । इसके बाद यह तय हुआ कि तुम यहाँसे कि यदि हो सके तो जूता न पहनना ही उचित उठाओ और हम वहाँसे उठावे; परन्तु फिर भी इसी है । क्योंकि यही मनुष्यप्रकृति के लिए सहज और बात पर झगड़ा हुआ कि पहले तुम रख जाओ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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