Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 31
________________ अङ्क ८] पुस्तक परिचय। ३५३ पुस्तक-परिचय । गुरुके शिष्य गुरुभाई होकर ) धर्मसे एवं कर्मसे पतित बतलाता है, तो दूसरा उसे भ्रष्टाचारी बतजैनसमाज । मासिक पत्र । आकार डबल- लाता है ।...गुरु शिष्यके लिए वकीलकी राय काउन सोलह पेजी । पृष्ठ ४८ । वार्षिक मूल्य एक लेने अदालतका आश्रय देखता है । कितने शर्मकी रुपया। सम्पादक और प्रकाशक श्रीयुत बाबूटेकच- बात है !” इस अवस्थाको सुधारनेका निर्भयन्दजी संघी बी. ए., कालबादेवी, बम्बई। अप्रैलसे ताके साथ आन्दोलन होना चाहिए । सामाजिक इस मासिकपत्रका निकलना शुरू हुआ है । चार कुरीतियों पर कुछ गहराईके साथ चर्चा होनी अंक निकल चुके हैं । शेताम्बर समाजमें गुजराती चाहिए । अब यह सब जानने लगे हैं कि वृद्धभाषाके कोई एक दर्जन पत्र निकलते हैं, परन्तु विवाह, कन्याविक्रय आदि बुरे हैं, उनकी बुराइ- : गत वर्षतक हिन्दीका एक भी पत्र नहीं था। हर्षका योंको बतलानेके लिए अब कलम घिसनेकी आव-. विषय है कि इस ओर कुछ हिन्दीप्रेमियोंका ध्यान श्यकता नहीं है; पर वे दूर नहीं हो रहे हैं, इसकी'. आकर्षित हुआ है और अभी अभी कई हिन्दी पत्र कारणभूत जो दूसरी परिस्थितियाँ हैं, उन पर विचार निकलने लगे हैं । जैनसमाज उन सबमें अच्छा है। होना चाहिए। जान पड़ता है, आगे इसकी अवस्था और भी सुधर २ मुनि । यह भी हिन्दीका एक मासिक पत्र जायगी और यह स्थायीरूपसे चलेगा । अब तक हे। बोदबड़ (खानदेश ) के महावीर मुनिमण्डइसे लगभग आठ सौ रुपयों की सहायता मिल चुकी लकी ओरसे यह डिमाई अठपेजीके ३२ पृष्ठोंमें है । हमारे सामने मई , जून और जुलाईके अंक निकलता है । वार्षिक मूल्य दो रुपया है । श्रावहैं । इनमें कई लेख पढ़ने योग्य हैं । सम्पादक णसे इसका दूसरा वर्ष प्रारंभ हुआ है । पहले महाशय कट्टर श्वेताम्बर नहीं हैं । उनके हृदयमें वर्षमें इसके सम्पादक श्रीयुत ब. विश्वंभरदासजी दिगम्बरोंके लिए भी स्थान है, अतएव इस पत्र- गार्गीय थे, और इस वर्ष मुरारके बाबू · श्यामसे हमारे दिगम्बरभाई भी लाभ उठा सकते हैं। लालजी गुप्त हैं । पत्र स्थानकवासी सम्प्रदायको श्वेताम्बर सम्प्रदायमें साधुओंका प्रभाव सीमासे है और इसके पूर्व तथा वर्तमान सम्पादक दिगम्बर अधिक है । उनकी संख्या भी अधिक है और सम्प्रदायके हैं। 'मुनि ' नामसे यह आशा की श्रावकोंमें धार्मिक ज्ञानका प्रायः अभाव है । इस जाती थी कि इसमें मुनियों या साधुओंके सम्बन्धमें कारण साधुओंकी नादिरशाही खूब ही चलती है। कुछ चर्चा रहा करेगी; परन्तु देखते हैं कि इसके । उनके विरुद्ध आवाज उठानेवाला कोई नहीं। सारे ही पष्ठ अन्यान्य पत्रोंके समान सामाजिक हमें आशा है कि समाजके सम्पादकका ध्यान इस उन्नति आदिके सम्बन्धमें ही भरे रहते हैं । मालूम ओर जायगा । उसके पिछले अंकके एक लेखमें साधु- नहीं, इसके प्रकाशकोंने इस नामकी सार्थकता ओंकी दुर्दशा पर कुछ पंक्तियाँ लिखी भी गई हैं। किस तरह करनी सोची है । इसके विविध विषयस" साधुओंकी दशा वर्तमान कालमें इतनी गर्हणीय म्बन्धी लेख साधारणतः अच्छे रहते हैं। उनमें हो रही है कि उनमें पिछले आचार्योंके नियमोंका कोई साम्प्रदायिकता भी नहीं रहती है । दिगम्बरी लेश भी नजर नहीं आता ।......एक पदस्थ और दूसरे भाई भी इससे लाभ उठा सकते हैं। दूसरके शिष्यके लिए अपने शिष्योंको दूर करता सम्पादक महाशय सूचित करते हैं कि दशलक्षण' है और शिष्य अपने गुरु पर नोटिस प्रकट करता पर्वमें. मुनिका एक विशेष अंक निकलेगा, । है!....एक धर्माचार्य दूसरे धर्माचार्यको (एक ही जिसमें अनेक चित्र और पुष्कल लेख रहेंगे। जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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