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जैनहितैषी -
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ग्राहक नहीं हैं उन्हें यह अंक ॥ = ) में मिलेगा । स्थानकवासी सम्प्रदाय में तो दशलक्षणपर्व माना नहीं जाता, फिर मुनिका खास अंक इस पर्व के उपलक्ष्य में क्यों निकलता है ?
हुआ
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कच्छी जैन मित्र । सम्पादक, दामजी त्रिकमजी सायला और प्रकाशक, जेठाभाई देवजी नागड़ा, काथाबाजार मांडवी, बम्बई । गुजराती भाषाका मासिक पत्र है । जूनसे निकलना शुरू है । चार अंक निकल चुके हैं । जैनहितैषी के आकारके लगभग ३६ पृष्ठों पर निकलता है । बड़ी जसे निकला है । प्रत्येक अंकमें दश दश बारह बारह चित्र रहते हैं । कवरपेज पर एक सुन्दर स्त्रीका चित्र है । यह इस लिए कि मनोमोहिनियोंके चित्रके बिना लोग पत्रों पर नहीं रीझते ! लेखकोंको रिझानेका भी प्रयत्न गया है । जिस लेखकका लेख रहता है, उस लेखके प्रारंभ में एक चित्र भी रहता है । यहाँ तक कि कई साधु महाशयोंने भी अपने लेखों में अपने चित्रोंका प्रकाशित कराना उचित समझा है । हम देखते हैं कि श्वेताम्बर साधुओं में चित्र प्रकाशित करानेका रोग बेतरह बढ़ रहा है । इन दिनों श्वेताम्बर सम्प्रदायकी ऐसी बहुत थोड़ी पुस्तकें छपती हैं; यहाँतक कि दश बीस पनेके ट्रेक्ट भी - जिनमें कोई मुनि महाशय विराजमान न हैं। । पत्रका मूल्य तीन रुपया है, जो इस समयकी महँगी एक तरहसे कम ही है । बम्बई में कच्छनिवासी जैनोंकी संख्या बहुत है और उनमें धनिक व्यापारी भी बहुत हैं । यह पत्र उन्हींकी सहायतासे निकला है । लेख साधारणतयां अच्छे रहते हैं; यद्यपि उनमें जैनदृष्टिकी कमी रहती है । कई लेख और कई चित्र पठनीय और दर्शनीय निकले हैं । हम इस पत्र की हृदयसे उन्नति चाहते हैं ।
३ शारदा | सम्पादक और प्रकाशक, पं० चंद्रशेखर शर्मा, दारागंज प्रयाग । यह संस्कृत भाषाकी मासिकपत्रिका है । सरस्वती के आकार में ४०
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किया उसका
[ भाग १३
पृष्ठों पर निकलती है । इसका वार्षिक मूल्य तीन रुपया है । इसके सम्पादक महाशय संस्कृत के सुलेखक और बहुत विद्वान हैं । संस्कृत के नामी नामी पण्डितोंके लेख इसमें रहते हैं 1 चैत्र १९७४ की प्रथम संख्या हमारे सामने है । इसमें सम्पादकीय टिप्पणियाँ, मीमांसादर्शन, मन, हरि और हरमें अभेद, आल्हा, पद्मावतीपरिणय चम्पू, पालिभाषाके जातकों का अनुवाद, आयुर्वेदका महत्त्व, आदि अनेक विषयोंके लेख हैं । साहित्यप्रचारशीर्षक टिप्पणी में सम्पादकने पाली और प्राकृत
भाषा के बौद्ध जैनग्रन्थोंको भारतीय साहित्यमें स्थान देनेके लिए और उनका अध्ययन करनेके लिए अपने पाठकोंका ध्यान आकर्षित किया है । उसका सारांश यह है- " धर्मभेदसे साहित्यका भेद करना ठीक नहीं । जब इस समय शेक्सपियर और मिल्टन आदि ईसाई कवियोंके ग्रन्थ सब लोग पढ़ते हैं, तब बौद्ध जैन साहित्यने क्या अपराध किया है ? पूर्वसमय में धर्मग्रन्थोंका अध्ययन ही प्रचुर ज्ञानका कारण माना जाता था; पर अब वह बात नहीं है । व्यावहारिक विषय भी इस समय अध्ययनकोटिमें प्रविष्ट हो गये हैं । धार्मिक ग्रन्थोंके अध्ययनसे लौकिक फल नहीं मिलता है । इस कारण लोग उन्हें नहीं पढ़ना चाहते । जो धार्मिक हैं और धर्मलब्ध धनसे जिनका निर्वाह होता है वे भी अपने लड़कोंको व्यवहारज्ञानकी वृद्धिके लिए अँगरेजी स्कूलों में भेजते हैं और धार्मिक ग्रन्थ नहीं पढ़ाते; व्यावहारिक ज्ञानकी स्वयं निन्दा करते हुए भी बच्चों को उस ओर उत्साहित करते हैं । ऐसी दशा में बौद्ध जैनसाहित्यका अध्ययन और प्रचार हानिकारक नहीं माना जा सकता । बौद्ध-जैन - साहित्य में धर्मभेद भले ही हो, पर हृदयभेद नहीं है । भारतीय हृदयसे बौद्ध जैनसाहित्य भी लिखे गये हैं । उनमें भी भारतीय भाव ही मिलते हैं, अतएव भारतवासियोंको इन दोनों साहित्योंका प्रचार करना चाहिए । ....... धर्मशास्त्र और ज्योतिः - शास्त्रमें विरोध नहीं
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