Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ जैनहितैषी [ भाग १३ मात्रसे पापोंका क्षय हो जाता है । अरे मूर्यो, अर्थात् हजारों लाखों विशुद्ध श्रावकोंके भोजन धर्मधर्मका स्मरण करके क्यों भटक रहे हो ? शत्रु- करानेसे जो पुण्य होता है, उससे आधिक एक जय तीर्थके केवल एक बार दर्शन कर डालो, मुनिको दान देनेसे होता है । चाहे जैसा मुनि बस । बचपन, जवानी, बुढ़ापा और पशुपर्यायमें हो, यदि वह मुनिका वेष धारण कर रहा है, तो किये हुए पाप इस तीर्थके स्पर्शमात्रसे नष्ट हो ज्ञानी श्रावकोंको चाहिए कि उसकी भगवान् जाते हैं । हत्यादि पाप तभी तक छोड़े जाते हैं, गौतम गणधरके समान आराधना करें । यति जैसा जब तक गुरुके मुँहसे 'शत्रुजय' इतना शब्द तैसा भी हो; परन्तु यदि वह अपने वेषमें वर्तमान नहीं सुन पाया है। अरे प्रमादियो, पापोंसे मत है अर्थात् उसने साधुओंके कपड़े पहन रक्खे हैं डरो, मत डरो, केवल एक बार शत्रुजयकी कथा तो वह सम्यक्त्वसहित पुरुषों के द्वारा राजा श्रेणिसुन लो । शत्रुजयकी यात्राके लिए एक एक पैर कके समान सर्वदा पूज्य है ! गुरुकी आराधनासे बढ़ानेसे करोड़ों भवोंके पापोंसे प्राणी मुक्त होता स्वर्ग मिलता है और विराधनासे नरक; इस तरह चला जाता है! ये दो गति गुरुओंसे प्राप्त होती हैं। इनमेंसे ___ एक जगह लिखा है कि "चार हत्याके करनेवाले इच्छानुसार किसी एकको गृहण कर लो। बुद्धिमान परस्त्रीगामी और अपनी बहिनके साथ व्यभिचार वार पाठकोंको यह समझनेमें विलम्ब न होगा कि गुरु र करनेवाले चन्द्रशेखर राजाका भी इस तीर्थसे ऑकी यह महिमा बतलानेमें ग्रन्थकारका क्या उद्धार हुआ है !” अभिप्राय है। - पाठक देखें कि इस प्रकारकी महिमा जैन- 3 धर्मकी कर्मफिलासफीसे कितना सम्बन्ध रखती है। इस ग्रन्थकी कथाओंके तथा भविष्य प्राणियों और यह भी सोचें कि इस तरहके उपदेश लोगोंके आदिके सम्बन्धमें भी बहुत सी बातें लिखी जा हृदयमें पापोंकी ग्लानि कितनी कम कर देंगे। सकती है; परन्तु इस छोटीसी आलोचनामें उनके जब शत्रंजयके नाम मात्रसे बड़े बड़े पाप कट लिए स्थान नहीं है । श्वेताम्बर सम्प्रदायके विद्वान् जाते हैं, तब फिर पापोंसे डरनेकी आवश्यकता . सज्जनोंसे हमारी पार्थना है कि वे अपने यहाँके ही क्या है ? इस प्रकारके साहित्यकी परीक्षा करें और समयके नीचेके श्लोकोंमें शिथिलाचारी गुरुओंकी प्रजा- अनुकूल अब लोगोंमें वचनप्रधानताकी जगह का उपदेश दिया है, जिससे साफ मालूम होता है परीक्षा प्रधानताके भावोंका प्रचार करें। इस प्रकारके कि ग्रन्थकर्ता महाराज पाँचवीं सदीके नहीं किन्तु साहित्यके जैनधर्मने मूल सिद्धान्तोंको ढंक चौदहवीं शताब्दिके लगभगके कोई जती हैं, जो रक्खा है ! अपनी और अपने भाइयोंकी-गुणहीन शिथिला- ८तीस चौवीसी पूजा । सम्पादक, पं० मुनाचारी होने पर भी पूजा करानेके लिए व्याकुल थे। लालजी काव्यतीर्थ और प्र०, बाबू दुलीचन्द जैन, सहस्रलक्षसंख्यातैर्विशुद्धः श्रावकैरिह । जिनवाणप्रिचारक कार्यालय, ६२।२-१ वीडनयद्भोजितैर्भवेत्पुण्यं मुनिदानात् ततोऽधिकम् ॥ स्ट्रीट कलकत्ता । पृष्ठसंख्या ३७२। मूल्य २१) रु० यादृशस्तादृशो वापि लिङ्गी लिनेन भूषितः। श्रीगोतम इवाराध्यो बुधैर्बोधसमन्वितः॥ काशीनिवासी बाबू वृन्दावनजीके नामसे जैनसमाज वर्तमानोऽपि वेषेण यादृशस्तादृशोऽपि सन् । सुपरिचित है । आपका वर्तमान चौवीसी पाठ प्रकायतिः सम्यक्त्वकलितैः पूज्यः श्रेणिकवत् सदा ॥ शित हो चुका है। अब यह तीस चौवीसी पाठ गुरोराधानात्स्वर्गो नरकच विराधनात् । । प्रकाशित हुआ है। इसमें भूत-भविष्यत्-वर्तमानकालद्वे गती गुरुतो लभ्ये गृहीतैकां निजच्छया ॥ सम्बन्धी भरत ऐरावत विदेह आदिके ७२० तीर्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56