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अङ्क ८ ]
करोंकी पूजायें हैं । इसके एक पद्यसे मालूम होता है कि यह संस्कृतके किसी पूजापाठके आधारसे बनाया गया है । यों तो वृन्दावनजीकी कविता अच्छी समझी जाती है, पर वे अपनी कवितामें शब्दों को खूब ही तोड़ते-मरोड़ते थे। इस पाठमें हम देखते "हैं कि उक्त दोष और भी अधिक बढ़ा-चढ़ा हुआ है । यह प्रतिकविजीकी खुदकी लिखी हुई प्रतिपरसे शुद्ध की गई है। फिर भी थोड़ी बहुत अशु द्धियाँ रह गई हैं । एक कमी यह भी रह गई है कि इसमें जो कमलबद्ध, धनुर्बद्ध आदि चित्र - काव्य थे, उनके चित्र नहीं बनवाये गये ।
पुस्तक- परिचय |
९ हरिवंशपुराण | लेखक, जीवराज गोतमचन्द दोसी । प्र०, नाथारंगजी जैनोन्नति फण्ड, शोलापुर । डिमाई अठपेजीके ४५० पृष्ठ | मूल्य २ ) । पुनाट संघीय श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण के आधारसे यह ग्रन्थ मराठी भाषामें लिखा गया है । इसमें मूलका आलंकारिक वर्णन छोड़कर केवल कथाभाग लिया गया है ।
बहुत से लोग इस प्रकृतिके होते हैं कि वे आलंकारिक और शृंगारपूर्ण वर्णन से शीघ्र ही ऊब जाते हैं और इस समय में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जाती है । उनके लिए बृहद्ग्रन्थोंके इस प्रकार के संक्षिप्त या संशोधित संस्करणोंकी आवश्यकता है । केवल इतिहासकी और तथ्य संग्रहकी रुचि रखनेवालों. के लिए भी ऐसे संस्करण बहुत उपयोगी होते हैं । अवश्य ही इनका सम्पादन बहुत सावधानी से होना चाहिए । मूलकी कोई महत्त्वकी बात छोड़ी नहीं जानी चाहिए और मूलके भावोंका कोई परिवर्तन भी न किया जाना चाहिए । इस संस्करणको अच्छी तरह पढ़ सकने का हमें अवकाश नहीं मिल सका, तो भी हम लेखक महाशय से परिचित हैं, उनके • प्रयत्न प्रमादोंकी बहुत कम संभावना है । इसमें यदुवंशकी उत्पत्तिका वर्णन हमने पढ़ा तो मालूम हुआ कि यदुराज के शूर और सुवीर नामके दो पुत्र थे । शूरके अन्धकवृष्टि आदि दश पुत्र हुए
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और सुवीरके भोजकवृष्टि आदि अनेक पुत्र हुए । अन्धकवृष्टिके पुत्र समुद्रविजय, वसुदेव आदि हुए और भोजकवृष्टिके उग्रसेन, महासेन आदि हुए । आगे उग्रसेनकी कन्या राजीमती के साथ समुद्रविजयके पुत्र नेमिनाथ भगवानका विवाह होना निश्चित हुआ । अर्थात् शूर और सुवीर इन दोनों सगे भाइयोंके पौत्रों के पुत्र और कन्या उस समयकी नीतिके अनुसार परस्पर विवाहसम्बन्ध में बद्ध हो सकते थे ! इस तरहका सम्बन्ध होना उस समय जायज था । मामाकी लड़कीके साथ सम्बन्ध होने के तो हरिवंशपुराण में कई उदाहरण हैं । ये ऐसी बातें हैं जिनपर विचार होनेकी आवश्यकता है । अब पुराणग्रंथोंको केवल पुण्यलाभ की दृष्टि से ही नहीं पढ़ना चाहिए | उनमें से कुछ तथ्यों का आविष्कार भी करना चाहिए । जो लोग इन विवाहादिसंबंधी रूढ़ि - योंको धर्मके स्थायी सिद्धान्त मानते हैं, और आठ आठ सोलह सोलह गोत्रोंको टालकर ब्याह करने में ही परमधर्म मानते हैं, वे इन पुराणपुरुषों के दृष्टान्तों पर एक दृष्टि डालने की कृपा करें । ग्रन्थका मूल्यव है । मराठी जाननेवालों को अवश्य मँगाना चाहिए ।
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१० महाराणा राजसिंह । ले०, पं० रामप्रसाद मिश्र और प्रकाशक, नाट्यग्रन्थप्रसारक मण्डल, ए. बी. रोड कानपुर । मूल्य दश आने । इसकी भूमिका में लिखा है कि ' इस ग्रन्थका कथासूत्र नितान्त ऐतिहासिक आधार पर है;" परन्तु जान पड़ता है लेखक महाशय उपन्यासों को भी 'नितान्त इतिहास ' समझते हैं । यही कारण है जो स्वर्गीय बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्यायके उपन्यासके आधार पर लिखे हुए इस नाटकको भी वे नितान्त ऐतिहासिक मानते हैं । बंकिम बाबूके ' राजसिंह ' में यद्यपि इतिहास है; परन्तु वह नितान्त इतिहास नहीं है । उसमें अनेक पात्र और अधिकांश घटनायें बिलकुल कल्पित हैं और वे उपन्यासको मनोरम तथा सुन्दर बनाने के लिए लिखी गई हैं । लेखक महाशय ने यह भी
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