Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 35
________________ अङ्क ८ पुस्तक-परिचय।.. लालचन्द पुस्तकोद्धार फण्ड ' की ओरसे यह ग्रन्थ रसूरि इसके बाद ही किसी समय हुए होंगे, यह प्रकाशित हुआ है । क्राउन सोलह पेजी साइजके सुनिश्चित है। उन्हें वि० सं० ४७७ में प्रथम ७५१ पृष्ठके इस कपड़ेकी पक्की जिल्दवाले शिलादित्यके समयमें सिद्ध करनेके लिए भूमिकाके ग्रन्थका मूल्य केवल बारह आने है । इतने सस्ते लेखक महाशयको बड़ी बड़ी उलझनोंमें पड़ना पड़ा दामोंमें शायद ही कोई संस्था पुस्तकपचार करती है और उनसे सुलझनेके लिए अनेक ओंधी-सीधी होगी । इसके लिए संस्थाके संचालकोंको जितना सच-झूठ बातें लिखनी पड़ी हैं । धनेश्वर सूरिने धन्यवाद दिया जाय उतना थोड़ा है । विक्रम संवत् शिलादित्यको प्रतिबोधित करके जैन बनाया और १७५५ में जिनहर्षगणि नामके एक श्वेताम्बरसाधुने बौद्धोंको हराकर उन्हें सौराष्ट्र देशसे निकाल दिया; इस रासकी रचना की है । ग्रन्थकी भाषा गुजराती लेखक इस बातको भी सच मानते हैं और चन्द्रहै। इसका सम्पादन 'शास्त्रविशारद जैनाचार्य प्रभसूरिकृत प्रभावकचरितमें लिखा है कि मल्लवादि योगनिष्ठ श्रीबुद्धिसागरसूरि' ने किया है । आपने नामके आचार्यने शिलादित्यकी सभामें बौद्धोंको पुस्तकके प्रारंभमें कोई ६४ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना हराया और उसे जैन बनाया, सो इसमें भी कोई लिखी है । सूरि महाशयकी पदवियोंने हमें प्रस्ता. सन्देह नहीं करते ! जान पड़ता है, मल्लवादिकी नाको पढ़नेके लिए विवश किया; परन्तु पढ़कर कथाको ही किसीने धनेश्वर सूरिका माहात्भ्य बढ़ाहमें निराश होना पड़ा । हम उसमें कोई बात ऐसी नेके लिए उनके साथ जोड़ दिया है । धनेश्वर न पा सके जिसमें उनकी सदसद्विवेचनाशक्तिका सूरिका शत्रुजयमाहात्म्य बड़ा ही विचित्र है। या सत्यान्वेषणशीलताका परिचय मिलता । ग्रन्थ- इसको पढ़ते समय ऐसा नहीं मालूम होता कि कर्ताकी प्रत्येक बातको आपने निर्धान्त समझा है; हम कोई जैनग्रन्थ पढ़ रहे हैं । यह ब्राह्मणोंक इतना ही नहीं बल्कि उसकी भ्रान्तिको सत्य सिद्ध बद्री, केदार, प्रभास आदि तीर्थोंके माहात्म्यका : करनेका प्रयत्न किया है । यह गुजराती रासा धने- बिलकुल अनुकरण मालूम होता है। शत्रुजयकी श्वरसुरिके संस्कृत 'शत्रंजयमाहात्म्य' नामक खूब अनाप-शनाप महिमा गाई गई है। कुछ विशाल संस्कृत ग्रन्थका प्रायः अनुवाद है । इसमें श्लोक देखिए: और मूल ग्रन्थमें शत्रुजयकी अमर्यादित प्रशंसा की नास्त्यतः परमं तीर्थ सुरराज जगत्रये । है और उसके माहात्म्यको बढ़ानेके लिए बहुतसी यस्यैकवेलं नाम्नापि श्रुतेनाहः क्षयो भवेत् ॥ ५६ झूठी सच्ची कथायें भी गढ़ डाली हैं; परन्तु सम्पा कथं भ्रमास मूढात्मन् धर्मो धर्म इति स्मरन् ।। दक महाशयकी दृष्टिमें वे सोलह आने सच्ची ऊंची एकं शत्रुजयं शैलमेकवेलं निरीक्षय ॥६१ हैं। धमेश्वरसूरिके विषयमें कहा गया है कि उन्होंने बाल्येऽपि.यौवने वाथै तिर्यक्जातो च यत्कृतम् । तत्पापं विलय याति सिद्धाद्रेः स्पर्शनादपि ॥ ८१ विक्रम संवत् ४७७ में वल्लभीपुरके राजा शिलादि तावद्वर्जन्ति हत्यादिपातकानीह सर्वतः । त्यकी प्रार्थनासे यह ग्रन्थ बनाया था; परन्तु यह यावत्शजयेत्याख्या श्रूयते न गुरोर्मुखात् ॥ ९४ . निरी गप्प है। मूल शत्रुजय महात्म्यमें कुमारपाल, न मेतव्यं न भेतव्यं पातकेभ्यः प्रमादिभिः ।। बाहडमंत्री, वस्तुपालमंत्री और समराशाहके उद्धारों श्रूयतामेकवेलं श्रीसिद्धक्षेत्रगिरेः कथा ॥ ९५ तकका वर्णन किया है । इनमेंसे सबसे पिछले सम- एकैकस्मिन् पदे दत्ते पुण्डरीकगिरि प्रति। राशाहका किया हुआ उद्धार विविधतीर्थकल्प आदि भवकोटिकृतेभ्योऽपि पातकेभ्यः स मुच्यते ॥ ७८ अनेक ग्रन्थोंके कथनानुसार वि० सं० १३७१ में अर्थात् शत्रुजयके समान श्रेष्ठ तीर्थ तीनों ' हुआ है, अत एव शत्रुजयमाहात्म्यके कर्ता धनेश्व- जगतमें कोई नहीं है जिसके एक बार नाम सुनने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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