Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 18
________________ ३४० जैनहितैषी [भाग १३ कितनेही गये हों, पर यह निश्चय है कि देव- अपने जो कुछ कहा वह आपके ही शब्दोंमें इस राज इस झगड़ेकी जाँच कर रहे हैं और प्रकार है:अभी यह जाँच और भी कुछ समयतक जारी “ मेरे विचारोंमें सदा परिवर्तन होता है। रहेगी। आगे और कौन कौन सज्जन कब कब आजसे १० वर्ष पहले मैं कैसा था, इसको सोचबुलाये जावेंगे यह निश्चय नहीं; पर बुलाये कर स्वयं मुझे ही आश्चर्य होता है ।मालूम नहीं अवश्य जावेंगे । यह भी निश्चय है कि अब आगे इन वर्तमानके विचारोंमें भी कितना परिवर्तन देवराज इन भाई-भाईयोंके युद्धको बहुत सम- हो जायगा । जब कभी मैं हिन्दी जैनगजटके वृद्ध यतक न चलने देंगे । यूरोपके महायुद्धको शीघ्र सम्पादककी कूटस्थानित्यतापर विचार करता हूँ समाप्त करनेके लिए जिस तरह इटलीके पोप तब अवाक हो जाता है। वे इस बीसवीं सदीमें प्रयत्न कर रहे हैं, उसी तरह जैनोंके इस भी सोलहवीं सदीके स्वप्न देखा करते हैं और युद्धको मिटानेके लिए साधर्म स्वर्गके चाहते हैं कि मेरे ही समान सारी दुनिया हो इन्द्रदेव यत्न कर रहे हैं । मेरा खयाल जाय । किसीके विचारों में जरासा परिवर्तन है कि पोपका प्रयत्न भले ही निष्फल चला देखा कि चटसे पुराने पत्रोंकी फाइलोमसे कुछ जाय, पर इन्द्रका यत्न सफल हुए बिना न टटोलकर पूर्वापरविरोध सिद्ध कर दिया ! गरज साव्योंकि यरोपके राष्टोंने धर्मको छोड़ यह कि मैं परिवर्तनशील संसारका परिवर्तनशील. दिया है । पर जैन समाजके मुखियोंमें अभीतक मनष्य है। वर्तमानमें कुछ समयसे मैं इस सिद्धाधर्म बना हुआ है । वे इन्द्रकी बातको कभी न न्तका माननेवाला बन गया हूँ:-- टोलेंगे। किस किसकी याद कीजिए, __ यदि मेरा यह अनुमान सच हो कि देवराज किस किसको रोइए । मुखियोंको बुला बुलाकर उनसे तीर्थोके झगड़ोंके आराम बड़ी चीज है, . विषयमें पूछ ताछ कर रहे हैं और सच होनेमें मुँह टैंकके सोइए ॥ कमसे कम मुझे तो कोई सन्देह नहीं है, क्यों पहले मैं जैनसमाजके लिए बहुत कुछ रोया कि मेरा कोई अनुमान झूठ नहीं होता, तो फिर गाया हूँ। बीसों लेख लिखे हैं और व्याख्याअब आगे जो लोग जावें उन्हें सब तरह से तैयार नादि दिये हैं; पर अब मुझे अपनी उस मूर्खता होकर जाना चाहिए । अपनी अपनी प्राचीनता पर हँसी आती है और पश्चात्ताप इस बातका सिद्ध करनेके लिए नये पुराने ग्रन्थोंका और होता है कि हाय मैंने आरामसे सोनेका वह पण्डितों तथा वकीलोंको अवश्य ही साथमें लिये अमूल्य समय व्यर्थ क्यों खो दिया ! जैनसमाज जाना चाहिए । क्यों कि न वहाँ मर्त्यलोकके जहन्नममें चला जाय, कल मरता था सो आज ग्रन्थोंका संग्रह है और न यहाँ जैसे पण्डित और मर जाय, मुझे उससे मतलब ? वह हमारी वकील हैं। क्या चिन्ता करता है जो हम उसकी करें? उसकी चिन्ता करनेवालोंको उसकी ओरसे जो पिछले सप्ताह मुझे एक पण्डितजीसे मिलनेका कुछ मिलता है, सो किसीसे छुपा नहीं है। सौभाग्य प्राप्त हुआ था । आपसे मिलकर मेरी जहाँ कृतघ्नताकी गिनती पापमें नहीं है, उस तबीयत बहुत प्रसन्न हुई। क्योंकि आपने अपनी समाजमें रहना भी पाप है । मेरा यह ' आराम भीतरी बाहरी सभी बातें जी खोलकर कह दी। बड़ी चीज है ' का सिद्धान्त यह मत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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