Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 8
________________ जैनहितैषी [ भाग १३ र्षित किया जाता है । इतने वर्षों के प्रयत्नसे कठिन नहीं है। अवश्य ही इस कार्यमें परिश्रम उनमेंसे निकले हुए विद्यार्थियोंमेंसे यदि दो चार बहुत होता है और वह बिना हार्दिकं रुचि और पर भी इतना संस्कार न हुआ कि वे जैनधर्मके सत्यप्रेमके नहीं हो सकता है। और उसके इतिहासके अध्ययनकी ओर प्रवृत्त हों; तो इन बोर्डिंगोंसे और विद्यार्थियोंसे हम सबसे पहले हमें अपना इतिहास तैयार करऔर क्या आशा कर सकते हैं ? . नेके साधन एकत्रित करने चाहिए। साधनोंके न होनेसे ही इस विषयकी ओर लोगोंकी कम - यदि यह संभव न हो-अपनी हार्दिक रुचिसे र प्रवृत्ति होती है। इस विषयके सबसे बड़े साधन स्वार्थत्यागपूर्वक कोई इस विषयका अध्ययन पुस्तकालय हैं, जिनके विषयमें पहले बहुत करनेवाला न निकले, तो समाजको चाहिए कि कुछ लिखा जा चुका है। दूसरे साधन शिलालेख यह कमसे कम पाँच ग्रेज्युएटों या अंडर आदिके संग्रह-ग्रन्थ हैं । इनकी बडी भारी आवमेज्युएटोंको-जिनकी संस्कृतमें अच्छी योग्यता श्यकता है। हमारी समझमें ये संग्रह नीचे लिखे -हो और जिन्होंने कालेजोंमें इतिहासको मख्यतासे अनुसार होने चाहिए। पढ़ा हो, छात्रवृत्तियाँ देवे और उन्हें इस विष- प्राचीनलेखसंग्रह । अबतक जितने जैन यका खास तौरसे अध्ययन करावे; फिर योग्यता शिलालेख, दानपत्र, स्मारक-लेख आदि मिल प्राप्त कर लेने पर मि० विन्सेंट स्मिथकी सम्म- चुके हैं, उन सबका संग्रह इसमें रहना तिके अनुसार उन्हें सरकारी पुरातत्त्वविभागके चाहिए । इंडियन एण्टिक्वेरी, एपीग्राफिआ अधिकारियोंके हाथके नीचे काम करनेके लिए इंडिका, एपीग्राफिआ कर्नाटिका, इन्स्क्रप्शन रख देवे । इस पद्धतिसे कुछ ही वर्षों में जैन एट् श्रवणबेल्गोल, आदि ग्रन्थोंसे यह बहुत इतिहासकी खास तौरसे चर्चा करनेवाले विद्वान् कम परिश्रमसे ही तैयार कराया जा सकता है । तैयार हो जायेंगे और उनके द्वारा जैन- यह कई भागोंमें निकलना चाहिए और यदि धर्मकी प्राचीन कीर्तिकी ऐसी ऐसी बातें प्रकट बन सके तो इसके प्रत्येक लेखके सम्बन्धमें कुछ होंगी जिनकी हमने कभी स्वप्नमें भी कल्पना नोट भी लगाये जाने चाहिए। न की होगी। . प्रतिमालेखसंग्रह । हमारे मन्दिरों और सीर्थों में जितनी प्रतिमायें मिलती हैं, प्राय: ऊन संस्कृतके विद्वानोंकी संख्या भी अब हमारे सबकी ही आसनमें कुछ न कुछ लिखा रहता है। यहाँ सन्तोष योग्य होती जाती है। उनमें से भी इतिहासके तैयार करनेमें इस प्रकारके लेख भी पदि दो चार सज्जनोंका ध्यान इस ओर आकर्षित बड़ी सहायता देते हैं। अतएव इन लेखोंका संग्रह हो तो बहुत काम हो सकता है। वे मन्दिरों और भी कई भागों में निकलना चाहिए । यदि हमारे प्रतिमाओंके शिलालेखों, दानपत्रों, पट्टावालियों, पढ़े लिखे भाई अपने अपने ग्रामों और और नगग्रन्थोंकी प्रशस्तियों, ग्रन्थोंके भीतरी वर्णनों और रोंके मन्दिरोंकी प्रतिमाओंके लेख सावधानीके साथ कथाग्रन्थोंके आधारसे जैनधर्मके इतिहासके नकल करके हमारे पास भेज दें, तो एक बहुत बहुत बड़े अभावोंकी पूर्ति कर सकते हैं। यदि बड़ा संग्रह तो सकता है और वह ऐतिहासिक वे करना चाहें तो उनके लिए यह कार्य कोई नोटोंके साथ प्रकाशित किया जा सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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