Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 08 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 5
________________ अङ्क ८] पुस्तकालय और इतिहास। चार संस्कृत प्राकृतके प्राचीन ग्रन्थोंको बहुत थोड़े एक एक प्रति अवश्य रहे । इसी विमागमें दामोंमें, पर चुप चाप, दे सकते हैं। गवर्नमेंटकी इंडियन एण्टिक्वेरी, एपिग्राफिआ इंडिका, लायबेरियोंके लिए इस तरह हजारों ग्रन्थ खरीदे एपीग्राफिआ कर्नाटिका, मुख्य मुख्य ग्यजेजा चुके हैं । कर्नाटक प्रान्तके भी ताड़पत्रों पर टियर, भाण्डारकर, पिटर्सन, आदिकी रिपोर्ट लिखे हुए ग्रन्थ इसी तरीकेसे घूम फिर कर संग्रह आदि भी रहें जिनमें अबतक उपलब्ध हुए किये जा सकते हैं । इसके सिवाय यदि कोई जैनशिलालेखों, दानपत्रों और जैनग्रन्थोंकी अच्छा पुस्तकालय स्थापित होगा और उस पर प्रशस्तियों आदिका समस्त संग्रह हो । गरज सारे समाजका विश्वास जम जायगा, सारे समा- यह कि जैनधर्म और जैन इतिहासके अध्ययन जके उपयोगके लिए उसका संग्रह होगा तो उसे करनेकी समस्त सामग्री इस पुस्तकालयमें प्रस्तुत सैकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थ दानस्वरूप भी मिल रहनी चाहिए। जायेंगे । ऐसे सैकड़ों स्थान हैं, जहाँ दश दश पाँच पाँच संस्कृत प्राकृतके ग्रन्थ मौजूद हैं बहुत ही अच्छा हो, यदि यह संस्था किसी परन्तु उनका कोई पढ़ने-समझनेवाला नहीं है। एक ही धनी धर्मात्माकी ओरसे स्थापित हो और प्रयत्न करनेसे और सर्व साधारणका विश्वास इसके द्वारा किसी पुण्यात्माका नाम सदाके लिए सम्पादन करनेसे वे सब ग्रन्थ मुफ्तमें मिल अजर अमर हो जाय। पर यदि यह संभव न हो, सकते हैं। गरज यह कि इस समय एक विशाल धनियाके भाग्यम यह सयश कमाना न लिखा हो. पुस्तकालय बहुत ही सुगमतासे स्थापित हो तो किसी सभा सुसायटीकी ओरसे ही इसके लिए सकता है। उद्योग होना चाहिए । बम्बई प्रान्तिक सभाके कार्यकर्ता यदि चाहें तो उन्हें इस कार्यमें अच्छी इस समयतक जितने ग्रन्थ बन चुके हैं और सफलता प्राप्त हो सकती है । बम्बई स्थान भी इसके उपलब्ध हो सकते हैं उन सबकी कमसे कम लिए बहुत उपयुक्त है। यहाँके तेरहपंथी मंदिर एक एक प्रति इस पुस्तकालयमें अवश्य संग्रह में पहलेहीसे अच्छा ग्रंथसंग्रह है। इसके सिवाय की जानी चाहिए । संस्कृत, प्राकृत, ढूँढारी, स्वर्गीय सेठ माणिकचन्दजीके संग्रहके लगभग बजभाषा, मराठी, गुजराती, कनड़ी आदि कोई २०० ग्रंथ और बीसपंथी मन्दिरके भी कुछ ग्रन्थ भी भाषा और लिपि ऐसी न रहे; जिसके जैन- पुस्तकालयके लिए मिल सकते हैं। इतने ग्रन्थोंसे ग्रन्थ इस भण्डारमें न हों। कुछ समयके बाद पुस्तकालयका प्रारंभ हो सकता है । इसके बाद इस पस्तककालयके विषयमें यह उक्ति चरि- चन्दा किया जाय और नियमित रूपसे ग्रंथ तार्थ हो जानी चाहिए कि यन्नेहास्ति न तत्क्व. एकत्र होते रहें । यदि इस कार्यमें प्रतिवर्ष चार चित्'-जो इसमें नहीं है, वह कहीं भी नहीं है। पाँच हजार रुपये ही खर्च किये जायें तो कुछ वर्षों में प्रत्येक ग्रन्थकी प्राचीन प्रतियोंके संग्रह करनेकी बहुत बड़ा संग्रह हो सकता है । जैन महासभासे ओर अधिक लक्ष्य दिया जाना चाहिए । जो यद्यपि हमें कोई आशा नहीं है क्योंकि इसके प्रति जितनी ही पुरानी होती है वह उतने ही कार्यकर्ता कुछ हैं ही नहीं, और वास्तवमें वे कुछ महत्त्वकी होती है । पुस्तकालयमें एक भाग छपे करना ही नहीं चाहत हैं, परन्तु जब वे ग्रंथोंके हुए ग्रन्थोंका भी होना चाहिए । उसमें छपानेके कट्टर विरोधी हैं और उन्हें ग्रन्थोंके अब तकके छपे हुए तमाम मुद्रित प्रन्योंकी छपानमें भयंकर पाप दिखता है तब उन्हें चाहिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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