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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[छद्मस्थकाल]
करवाया। वहां पांच प्रकार की दिव्य वष्टि हई । इस प्रकार राजा ब्रह्मदत्त प्रभु अजितनाथ के प्रथम भिक्षादाता हुए।
भगवान् अजितनाथ दीक्षित होने के पश्चात् बारह वर्ष तक छद्मस्थावस्था में ग्रामान ग्राम विचरण करते रहे । बारह वर्ष तक बाह्य और पाभ्यन्तर तपश्चरण द्वारा प्रभु कर्म समूह को ध्वस्त करते रहे । एक दिन प्रभु सहस्राम्रवन में बेले की तपस्या के साथ ध्यानमग्न थे । ध्यानावस्था में घाति कर्मों का समलोच्छेद करने वाली क्षपकश्रेणि पर आरूढ हए और अप्रमत्त गणस्थान से प्रभु ने आठवें अपूर्वकरण नामक गुणस्थान में प्रवेश किया। वे श्रुत के किसी शब्द पर चिन्तन में प्रवृत्त हुए । शब्द-चिन्तन, अर्थ-चिन्तन और अर्थ चिन्तन में शब्द पर ध्यान केन्द्रित करते हुए वे अनेक प्रकार के श्रुत विचार वाले पृथक्त्व वितर्क सविचार नामक शुक्लध्यान के प्रथम चरण में प्रविष्ट हए । पाठवें गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रह कर ध्यान की प्रबल शक्ति से प्रभु ने मोहनीय कर्म की हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा इन छ: प्रकृतियों को समूल नष्ट कर नवें अनिवृत्ति बादर नामक गुणस्थान में प्रवेश किया। इस नवें गरणस्थान में प्रभ की ध्यानशक्ति और अधिक प्रबल होती गई । उस प्रबल होती हई ध्यान शक्ति से आपने वेद मोहनीय की प्रकृतियों, कषाय मोहनीय के संज्वलन क्रोध, मान और माया को नष्ट करते हए सक्ष्मपराय नामक दशम गुणस्थान में प्रवेश किया। ध्यान-बल से ज्यों-ज्यों मोह का क्षय होता गया, त्यों-त्यों आत्मशक्ति भी बढ़ती गई और गुणस्थान भी बढ़ते गये। मोहनीय कर्म को पूर्णरूपेण मूलत: नष्ट कर प्रभु क्षीणमोह नामक वारहवे गगास्थान में पाये । यहां तक शुक्ल-ध्यान का प्रथम चरण कार्यसाधक बना। शुक्लध्यान के प्रथम चरण के बल से मोहनीय कर्म को नष्ट कर भगवान् अजितनाथ परम वीतराग हो गये । बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में शुक्लध्यान का एकत्व वितर्क अविचार नामक दूसरा चरण प्रारम्भ हुआ । शुक्लध्यान के इस द्वितीय चरण में स्थिरता प्राप्त कर ध्यान एक ही वस्तु पर स्थिर होता है । शुक्लध्यान के इस द्वितीय चरण में इसके प्रथम चरण के समान शब्द से अर्थ और अर्थ से शब्द पर ध्यान के जाने की स्थिति न रह कर शब्द और अर्थ इन दोनों में से केवल एक पर ही ध्यान स्थिर रहता है । शुक्लध्यान के इम द्वितीय चगा के प्राप्त होते ही प्रभु ने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय प्रौर अन्तराय इन शेप घाति कर्मों को एक साथ नष्ट कर युगपत् केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति के साथ तेरहवें सयोगि केवली नामक गणस्थान में प्रवेश किया। इस प्रकार वारह वर्ष तक छदमस्थावस्था में साधना के अनन्तर भगवान् अजितनाथ ने पौष शुक्ला एकादशी के दिन चन्द्रमा का रोहिणी नक्षत्र के साथ योग होने पर विनीता (अयोध्या) नगरी के सहस्राम्र वन में अनादि काल से चली आ रही छद्मस्थावस्था का अन्त कर युगपत् प्रकट हुए अनन्त ज्ञान और अनन्त-दर्शन से सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हो गये।
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