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परिनिर्वाण
भगवान् महावीर पर दो हजार वर्ष तक रहेगा । अतः उसके संक्रमणकाल तक माप प्रायु को बढ़ा लें तो वह निष्फल हो जायेगा।" ।
भगवान् ने कहा-"इन्द्र ! प्रायु के घटाने-बढ़ाने की किसी में शक्ति नहीं है।' ग्रह तो केवल आगामी काल में शासन की जो गति होने वाली है, उसके दिग्दर्शक मात्र हैं।" इस प्रकार इन्द्र की शंका का समाधान कर भगवान ने उसे संतुष्ट कर दिया।
परिनिर्वाण भगवान् महावीर का कार्तिक कृष्णा अमावस्या की पिछली रात्रि में निर्वाण हुमा, उस समय तक सोलह प्रहर जितने दीर्घकाल पर्यंत प्रभु अनन्त बली होने के कारण बिना खेद के प्रवचन करते रहे। प्रभु ने अपनी इस मन्तिम देशना में पुण्यफल के पचपन अध्ययनों का और पापफल विपाक के पचपन . अध्ययनों का कथन किया, जो वर्तमान में सुख विपाक और दुःख विपाक नाम
से विपाक सूत्र के दो खंडों में प्रसिद्ध हैं। भगवान महावीर ने इस प्रन्तिम देशना में अपृष्ट व्याकरण के छत्तीस अध्ययन भी कहे', जो वर्तमान में उत्तराध्ययन सूत्र के रूप में प्रख्यात हैं। सेंतीसवा प्रधान नामक मरदेवी का अध्ययन फरमातेफरमाते भगवान् पर्यकासन में स्थिर हो गये। भगवान ने बादर काययोग में स्थित रह क्रमशः बादर मनोयोग और बादर वचनयोग का निरोध किया, फिर सूक्ष्म काययोग में स्थित रह बादर काययोग को रोका, वाणी और मन के सूक्ष्म योग को रोका । शुक्लध्यान के सूक्ष्म क्रिया प्रप्रतिपाती तीसरे चरण को प्राप्त कर सूक्ष्म काययोग का निरोष किया और समुच्छिन क्रिया पनिवृत्ति नाम के चौथे चरण में पहुँच अ, इ, उ, ऋ, और ल इन पांच अक्षरों को उच्चारण करें, १ (क) भयवं कुणह पसायं, विगमह एयंपि ताव सरगमेक्कं।
जावेस भासरासिस्स, नूणभुवमो प्रवक्कमह ॥१॥ महावीर १०, प्रस्ता०८,
प. ३३८ । (ख) मह जय गुरुणा भरिणयं सुरिंद, तीयाइतिविहकामेऽपि ।
नो भूयं न भविस्सइ न हवइ नूणं इमं कज्ज । जं पाऊकम्म विगमेऽवि, कोऽवि पच्छेज्ज समयमेसमवि
मच्चताणतविसिट्ठसत्तिपम्भारजुत्तोऽवि । २ (क) समवा०, ५५वा समवाय
(स) कल्पसूत्र, १४७ सू० ३ (क) कल्पसूत्र, १४७ सू०
(ख) उत्तराध्ययन चूरिण, पत्र २८३ । ४ संपलिग्रंक निसणे...... समवायांग ।
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