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सुभूम चक्रवर्ती
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कहा - "अरे ओ ब्राह्मण के बच्चे बटुक ! यह श्रेष्ठ सिंहासन तुझे किसने दिया है, जिस पर बैठकर तू अपना जंगलीपन प्रकट कर रहा है ? इन मानव अस्थियों का तो तुझे स्पर्श तक नहीं करना चाहिए पर अरे तू तो ब्राह्मण बटुक होकर भी इन मानव अस्थियों का भक्षण कर रहा है । तू दिखने
तो ब्राह्मण बटुक ही प्रतीत होता है । यदि यह सच है तो सुन ले - मेरा यह घोर परशु केवल क्षत्रियों के ही रुधिर का प्यासा है, दीन श्रोत्रिय ब्राह्मणों पर प्रहार करने में यह लज्जा का अनुभव करता है। यदि तू क्षत्रिय कुमार है और मेरे भय के कारण तूने ब्राह्मणों के समान वेष और प्रचार अंगीकार कर लिया है तो भी तुझे मुझसे डरने की आवश्यकता नहीं क्योंकि पृथ्वी के अनेक बार निक्षत्रिय कर दिये जाने पर अब तुम जैसे लोग वस्तुतः कुलीनों के लिये प्रगाढ़ अनुकम्पा के पात्र हो । अतः बुद्धिमानों द्वारा निन्दित एवं गहित मानव अस्थियों के इस अशुचि आहार का परित्याग कर मेरे इस सत्रागार में स्वादिष्ट से स्वादिष्टतम सात्विक षड्रस व्यंजनों का भोजन करो। अपनी भुजानों के बलपराक्रम के भरोसे यदि तू मेरे साथ युद्ध करना चाहता है तो भी तुझ जैसे निश्शस्त्र बालक पर प्रहार करने में मुझे स्वयं अपने ऊपर घृणा का अनुभव होता है। क्योंकि जो लोग अपने घर आये हुए पुरुष पर प्रहार करते हैं, उन लोगों की सत्पुरुषों में गणना नहीं की जा सकती ।" "
सुभूम सहज निर्भीक - निश्शंक मुद्रा धारण किये खीर भी खाता रहा और परशुराम की बातें भी सुनता रहा । परशुराम की बात पूरी होते होते सुभूम भी क्षीर भोजन से निवृत्त हुआ । परशुराम के कथन के पूर्ण होते ही सुभूम ने उसे उसकी बातों के उत्तर में अपनी बात कहना प्रारम्भ किया- "ओ परशुराम ! सुन । दूसरों के द्वारा दिये गये श्रासन को ग्रहरण करना पराक्रमियों के लिये कदापि शोभास्पद नहीं होता । केसरी सिंह का वन के राजा के रूप में कौन अभिषेक करता है ? मदोन्मत्त महाबलशाली गजराज को यूथपति के पद पर कौन प्रभिषिक्त करता है ? वे अपने पौरुष - पराक्रम के बल पर स्वतः ही वनराज एवं यूथपति बन जाते हैं । इसी प्रकार मैं भी अपने भुजबल के भरोसे, पौरुष - पराक्रम के बल के प्रभाव से इस सिंहासन पर आ बैठा हूं । प्रत्येक सत्पुरुष अपने दुष्कृत पर लज्जित होता है किन्तु इसके विपरीत तुम तो इतने अधिक दुष्कृत्य करने के पश्चात् भी अपने द्वारा मारे गये लोगों की दाढ़ों से थाल को भर कर फूले नहीं समा रहे हो, अपने दुष्कृत्यों की सराहना कर रहे हो । श्री मूढ ! क्या तुम यह भी नहीं जानते कि दाढ़ें किसी मनुष्य के द्वारा चबाई नहीं जा सकतीं । मैं दाढ़ें नहीं अपितु किसी प्रदृष्ट शक्ति द्वारा इस थाल में परोसी गई खीर खा रहा हूँ। मैं तुम्हें स्पष्ट बता दूं कि मैं ब्राह्मरण नहीं हूं ।
१ चउप्पन्न महापुरिसचरियं, पृ० १६६, गा० १७-२७
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