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अरि० द्वारा प्र० रहस्य का उद्०] भगवान् श्री अरिष्टनेमि और भवभ्रमण से विभ्रान्त अगणित व्यक्तियों के अन्तर में मिथ्यात्व के निबिड़. तम तिमिर को ध्वस्त करने वाले सम्यक्त्व सूर्य का उदय हुआ।
धर्म-परिषद् में आये हुए श्रोताओं के देशनानन्तर यथास्थान चले जाने के पश्चात् छ? २ भक्त की निरन्तर तपस्या के कारण कृशकाय वे अनीकसेन प्रादि छहों मुनि अर्हन्त अरिष्टनेमि की अनुमति लेकर दो दिन के-छ? तप के पारण हेतु दो-दो के संघाटक से, भिक्षार्थ द्वारिकापुरी की ओर अग्रसर हुए।
इन मुनियों का प्रथम युगल विभिन्न कुलों में मधुकरी करता हा देवकी के प्रासाद में पहुँचा । राजहंसों के समान उन मुनियों को देखते ही देवकी ने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और प्रेमपूर्वक विशुद्ध एषणीय आहार की भिक्षा दी । भिक्षा ग्रहण कर मुनि वहाँ से लौट पड़े।
__ मुनि-युगल की सौम्य आकृति, सदृश-वय, कान्ति और चाल-ढाल को परीक्षात्मक सक्ष्म दष्टि से देखकर देवकी ने रोहिणी से कहा-"दीदी ! देखो, देखो, इस वय में दुष्कर कठोर तपस्या से शुष्क एवं कृशकाय इन युवा-मुनियों को ! इनका रूप, सौन्दर्य, लावण्य और सहज प्रफुल्लित मुखड़ा कितना अद्भुत है ? दीदी! वह देखो, इनके सुकुमार तन पर कृष्ण के समान ही श्रीवत्स का चिह्न दिखाई दे रहा है।"
देवकी ने दीर्घ निःश्वास छोड़ते हए शोकातिरेक से अवरुद्ध करुण स्वर में कहा-"दीदी ! देव दुर्विपाक से यदि बिना कारण शत्रु कंस ने मेरे छह पुत्रों को नहीं मारा होता तो वे भी आज इन मुनियों के समान वय और वपु वाले होते । धन्य है वह माता, जिसके ये लाल हैं।"
देवको के नयनों से अनवरत अश्रुधाराएँ बह रहीं थीं।
देवकी का अन्तिम वाक्य पूरा ही नहीं हो पाया था कि उसने मुनि-युगल के दूसरे संघाटक को आते देखा । यह मुनि-युगल भी दिखने में पूर्णरूपेण प्रथम मुनि-युगल के समान था । इस संघाटक ने भी कृतप्रणामा देवकी से भिक्षा की याचना की। वही पहले के मुनियों का सा कण्ठ-स्वर देवकी के कर्णरन्ध्रों में गूंज उठा । वही नपे-तुले शब्द और वही कण्ठ-स्वर ।
देवकी ने मन ही मन यह सोचते हुए कि पहले जो भिक्षा में इन्हें दिया गया, वह इनके लिए पर्याप्त नहीं होगा, इसलिए पुनः लौटे हैं, उसने बड़े प्रादर और हर्षोल्लास से मनियों को पुनः प्रतिलाभ दिया। दोनों साधु भिक्षा लेकर चले गये ।
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