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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[रथनेमि का प्राकर्षण
राजीमती की इस प्रकार हितभरी ललकार और फटकार सुन कर अंकुश से उन्मत्त हाथी की तरह रथनेमि का मन धर्म में स्थिर हो गया। उन्होंने भगवान अरिष्टनेमि के चरणों में पहुँच कर, पालोचन-प्रतिक्रमण पूर्वक प्रात्मशद्धि की और कठोर तपश्चर्या की प्रचण्ड अग्नि में कर्मसमूह को काष्ठ के ढेर की तरह भस्मसात् कर वे शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो गये । राजीमती ने भी भगवच्चरणों में पहुंच कर वंदन किया और तप-संयम का साधन करते हुए केवलज्ञान की प्राप्ति कर ली और अन्त में निर्वाण प्राप्त किया।
अरिष्टनेमि द्वारा अद्भुत रहस्य का उद्घाटन धर्मतीर्थ की स्थापना के पश्चात् भगवान् अरिष्टनेमि भव्यजनों के अन्तमन को ज्ञान के प्रकाश से पालोकित कुमार्ग पर लगे हुए असंख्य लोगों को धर्म के सत्पथ पर प्रारूढ़ एवं कनक-कामिनी और प्रभुता के मद में अन्धे बने राजाओं, श्रेष्ठियों और गृहस्थों को परमार्थ-साधना के अमृतमय उपदेश मे मद-विहीन करते हुए कुसट्ट, मानर्त, कलिंग प्रादि अनेक जनपदों में विचरण कर भहिलपुर नगर में पधारे।
भहिलपुर में भगवान् की भवभयहारिणी अमोघ देशना को सुनकर देवकी के ६ पुत्र अनीक सेन, अजित सेन, अनिहत रिपु, देवसेन, शत्रसेन और सारण ने. जो सुलसा गाथापत्नी के द्वारा पुत्र रूप में बड़े लाड़-प्यार से पाले गये थे, विरक्त हो भगवान् के चरणों में श्रमणदीक्षा ग्रहण की। इनका प्रत्येक का बत्तीस २ इभ्य कन्याओं के साथ पाणिग्रहण करायागया था। वैभव का इनके पास कोई पार नहीं था' पर भगवान् नेमिनाथ की देशना सुन कर ये विरक्त हो गये।
भहिलपुर से विहार कर भगवान अरिष्टनेमि अनेक श्रमणों के साथ द्वारिकापुरी पधारे । भगवान् के समवसरण के समाचार सुनकर श्रीकृष्ण भी अपने समस्त यादव-परिवार और अन्तःपुर आदि के साथ भगवान के समवसरण में आये । जिस प्रकार गंगा और यमुना नदियाँ बड़े वेग से बढ़ती हुई समुद्र में समा जाती हैं, उसी तरह नर-नारियों की दो धाराओं के रूप में द्वारिकापुरी की सारी प्रजा भगवान् के समवसरण-रूप सागर में कुछ ही क्षणों में समा गई। भगवान् की भवोदधितारिणी वाणी सुन कर अगणित लोगों ने अपने कर्मों के गुरुतर भार को हल्का किया ।
अनेक भव्य-भाग्यवान् नर-नारियों ने दीक्षित हो प्रभ के चरणों की शरण ली । अनेक व्यक्ति श्रावक-धर्म स्वीकार कर मुक्ति-पथ के पथिक बने
१ अन्तगढ़ दसा वर्ग ३ म०१ से ६
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