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एक भग्न कड़ी]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि ब्रह्मदत्तश्च पांचाल्यो, राजा बुद्धिमतां वरः ।
(वही, अ० २२४, श्लो० २६) जैन परम्परा:
'अत्यि इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे गिरतरं... पंचालाहिहाणो जगवो । तत्थ य..."कपिल्लं रणाम रणयरं । तम्मि...."बम्भयत्तो रणाम चक्कवट्टी।'
(चउवन्न महापुरिस चरियं, पृ० २१०) (२) ब्रह्मदत्त के जीव ने पूर्व भव में एक राजा की ऋद्धि देखकर यह निदान किया था-"यदि मैंने कोई सुकृत, नियम और तपश्चरण किया है तो उस सबके फलस्वरूप में भी ऐसा राजा बनू।" बंदिक परम्परा :
स्वतन्त्रश्च विहंगोऽसौ, स्पृहयामास तं नृपम् । दृष्ट्वा यान्तं श्रियोपेतं, भवेयमहमीदृशः ॥४३॥ यद्यस्ति सुकृतं किंचित्तपो वा नियमोऽपि वा। खिन्नोऽस्मि ह्य पवासेन, तपसा निष्फलेन च ॥४४॥
(हरिवंश, पर्व १, प्र० २३) जन परम्परा :
'सलाहणीओ चक्कट्टिविहवो ममंपि एस संपज्जउत्ति जइ इमस्स तवस्स सामत्थमस्थि' ति हियएण चितिऊरण कयं णियाणं ति । परिणयं छक्खंडभरहाहिवत्तणं ।
(चउवन महापुरिस चरियं पृ० २१७) (३) ब्रह्मदत्त को जातिस्मरण-ज्ञान (पूर्वजन्म का ज्ञान) हुआ, इसका . दोनों परम्परामों में निमित्तभेद को छोड़ कर समान वर्णन है। वैदिक परम्परा :
तच्छ त्वा मोहमगमद्, ब्रह्मदत्तो नराधिपः । सचिवश्चास्य पांचाल्यः, कण्डरीकश्च भारत ।।२२।। ततस्ते तत्सरः स्मत्वा, योगं तनुपलभ्य च ।
ब्राह्मणं विपुलरर्थर्भोगैश्च समयोजयन् ।।२५।। जैन परम्परा :
'समुप्पण्णो मणम्मि वियप्पो-अण्णया वि मए एवं विहसंगीनोवलक्खिया णाड़यविहि दिट्ठउवा, एयं च सिरिदामकुसुमगंडं ति । एवं च परिचिंतयंतेण
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