________________
नामकरण]
भगवान् महावीर
है, अतः मेरी सम्मति में इसका 'वर्द्धमान" नाम रखना उपयुक्त जंचता है।" उपस्थित लोगों ने राजा की इच्छा का समर्थन किया । फलतः त्रिशलानन्दन का नाम वर्द्ध मान रखा गया । आपके बाल्यावस्था के कतिपय वीरोचित अद्भुत कार्यों से प्रभावित होकर देवों ने गुण-सम्पन्न दूसरा नाम 'महावीर' रखा।
___ त्याग-तप की साधना में विशिष्ट श्रम करने के कारण शास्त्र में आपको 'श्रमण' भी कहा गया है । विशिष्ट ज्ञानसम्पन्न होने से 'भगवान्' और ज्ञात कुल में उत्पन्न होने से 'ज्ञातपुत्र' आदि विविध नामों से भी आपका परिचय मिलता है। भद्रबाहु ने कल्पसूत्र में आपके तीन नाम बताये हैं, यथा :-माता-पिता के द्वारा 'वर्द्धमान', सहज प्राप्त सद्बुद्धि के कारण 'समण' अथवा शारीरिक व बौद्धिक शक्ति से तप आदि की साधना में कठिन श्रम करने से 'श्रमण' और परीषहों में निर्भय-अचल रहने से देवों द्वारा 'महावीर' नाम रखा गया ।
शिशु जिनेश्वर भ० महावीर के लालन-पालन के लिए पांच सुयोग्य धाय माताओं को नियुक्त किया गया, एक दूध पिलाने वाली, दूसरी प्रभु को स्नानमज्जन कराने वालो, तीसरी उन्हें वस्त्राभूषणों से अलंकृत करने वाली, चौथी उन्हें क्रीड़ा कराने वाली और पाँचवीं प्रभु को एक गोद से दूसरी गोद में बाल-लीलाएँ करवाने वाली धाय । माता त्रिशला महारानी और इन पाँच धाय माताओं के प्रगाढ़ दुलार से ओतप्रोत लालन-पालन और सतर्क देख-रेख में प्रभु महावीर शुक्ल पक्षीया द्वितीया के चन्द्र के समान निर्विघ्न रूप से उत्तरोत्तर इस कारप्र अभिवद्धित होने लगे, मानो गगनचुम्बी गिरिराज की सुरम्य गहन गुहा में पनपा हा कल्पवृक्ष का पौधा बढ़ रहा हो । तीन ज्ञान के धनी शिशु महावीर इस प्रकार उत्तरोत्तर अभिवृद्ध होते हुए स्वतः एक व्यवहार ज्ञान को सँजो लौकिक ज्ञान-विज्ञान में निष्णात हो क्रमशः बाल वय से किशोर वय में और किशोर वय से युवावस्था में प्रविष्ट हुए और अतीव सुखद-सुन्दर शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धादि से युक्त पाँच प्रकार के मानवीय उत्तम भोगोपभोगों का निस्संग भाव से उपभोग करते हुए विचरण करने लगे।
संगोपन और बालक्रीड़ा महावीर का लालन-पालन राजपुत्रोचित्त सुसम्मान के साथ हुआ । इनकी १ कल्पसूत्र, सूत्र १०३ २ कल्पसूत्र, १०४ ३ तो णं समणे भगवं महावीरे पंचधाइपरितुडे........."विन्नाण-परिणय (मित्ते)
विरिणयत बालभावे अप्पुस्सुयाई उरालाई माणुस्सगाइं पंचलक्खरणाई कामभोगाई सफरिसरसरूवगन्धाई परियारेमारणे एवं च णं विहरेइ ।
[प्राचारांग सूत्र, श्रु० २, प्र० १५]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org