Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 8
________________ अहिंसा (53-54), आदर्श की क्रमिक अनुभूति (54 55)। 3. सम्यग्दर्शन और सात तत्त्व 56-97 संक्षिप्त पुनरावृत्ति (56), उच्चतम अनुभूति की प्राप्ति में बाधा के रूप में मिथ्यात्व (56-58), नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के लिए अनिवार्य सात तत्त्व (5859), जीव (आत्मा) तत्त्व (59-60), अजीव तत्त्व (6061)- आस्रव और बंध (61-62), योग का स्वभाव (62-63), योग से उत्पन्न बंध के प्रकार (63-64), कषाय से उत्पन्न बंध के प्रकार (65), कषायसहित और कषायरहित योग (65-67), कषाय की विविध अभिव्यक्तियाँ (67-72), साम्परायिक आस्रव के कारण (72-74), विशेष साम्परायिक आस्रव (74-76), कुन्दकुन्द के अनुसार आस्रव और बंध (76-78), संवर, निर्जरा और मोक्ष की निश्चय (पारमार्थिक) दृष्टि (7879)- संवर, निर्जरा और मोक्ष की प्रक्रिया (80-81), मोक्ष के प्रमुख कारण के रूप में सम्यग्दर्शन (81), सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र संभव है सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) की प्राप्ति के पश्चात् (81-83), सम्यग्दर्शन के विविध लक्षण (83-84), आप्त, आगम और गुरु की विशेषताएँ (85), सात तत्त्वों की श्रद्धा उपर्युक्त सभी विशेषताओं में मुख्य (86), लोकातीत (निश्चय, शुद्ध) दृष्टि में सम्यग्दर्शन (87-88), सम्यग्दर्शन के प्रकार (88), सम्यग्दर्शन के आठ अंग व्यावहारिक दृष्टिकोण से (88-92), सम्यग्दर्शन के साथ रहनेवाली विशेषताएँ (92-93), लोकातीत (VII) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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