Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Author(s): Haribhai Songadh, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 16
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१४ चन्द्र : अहो! सम्यग्दर्शन की तो अपार महिमा सुनी है। हे भाई! यह बताओ कि उस सम्यग्दर्शन की आराधना किस प्रकार से हो? अकलंक : आत्मा की वास्तविक लगन (रुचि) लगाकर ज्ञानी संतों के पास से पहले उसकी समझ करनी चाहिए और फिर अंतर्मुख होकर उसका अनुभव करने से सम्यग्दर्शन होता है। भरत : ऐसा सम्यग्दर्शन होने पर आत्मा का कैसा अनुभव होता है? निकलंक : अहा! उसका क्या वर्णन करना? सिद्ध भगवान के समान वचनातीत आनन्द का अनुभव वहाँ होता है। (अब अकलंक निकलंक पूछते हैं और अन्य बालक जवाब देते हैं।) अकलंक : देखो! मोक्षशास्त्र में कहा है कि “तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' वह व्यवहार श्रद्धा है या निश्चय? ज्योति : वह निश्चय श्रद्धा है, क्योंकि वहाँ मोक्षमार्ग बताना है और सच्चा मोक्षमार्ग तो निश्चय रत्नत्रय ही है। निकलंक : तत्त्व कितने हैं? आशीष : तत्त्व नौ हैं और उन नौ तत्त्वों की श्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन है। अकलंक : उन नौ तत्त्वों के नाम बताओ? हंसमुख : जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये नौ तत्त्व हैं। निकलंक : इन नौ तत्त्वों में उपादेय तत्त्व कौन-कौन से हैं? पारस : नव तत्त्वों में से शुद्ध जीव तत्त्व उपादेय है तथा संवरनिर्जरा तत्त्व एकदेश उपादेय है और मोक्ष तत्त्व पूर्ण उपादेय है। अकलंक : बाकी कौन-कौन से तत्त्व रहे?

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