Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Author(s): Haribhai Songadh, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 77
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/७५ तब घुड़सवार सैनिक तेजी से पीछा उनका करते हैं। वह भी मुड़-मुड़ के देख रहे कहते अब नहिं बच सकते हैं ।। तब दोनों भागो भागो कह जोरों से भागे जाते हैं। अकलंक बड़ी तेजी से भग वे वहीं कहीं छुप जाते हैं ।। निकलंक अभी दोड़े जाते अरहंत प्रभू रटते जाते । कोइ राहगीर उनसे पूछे लेकिन वह बतला नहिं पाते || तब वही व्यक्ति हमदर्दी से दोड़ा उनके पीछे-पीछे। पूछूंगा जल्दी जाकर मैं क्या चक्कर है इसके पीछे। पीछे से सैनिक देख रहे बस मार गिराये दोनों को। दोनों के सिर फिर काट लिये अरु पेश कर दिये दोनों को।। अकलंक धड़ों को देख-देख रोते हैं अरु पछताते हैं। मेरे पीछे यह राहगीर के प्राण व्यर्थ ही जाते हैं ।। निकलंक बता क्या मात-पिता से कहकर मुख दिखलाऊँगा । प्रण तेरा पूरा हुआ आज मैं कब करके जय पाऊँगा ।। तुम नाम अमर कर गये आज अरु अमर भये जा स्वर्गों में। सुख स्वर्ग इसे भी निश्चित है परहित चाहा उपसर्गों में ।। अकलंक सोचते हैं मन में वीरों की यही निशानी है। या तो प्रण पूरा कर छोड़ें या छोड़ें फिर जिन्दगानी है ।। अन्याय से टक्कर लेने वाला सच्चा वीर कहाता है। अन्याय करे अरु प्रण ठाने नरकों का भाग्य विधाता है || मैं न्याय मार्ग का संचालन करने अब आगे बढ़ जाऊँ। हे वीर मुझे वह शक्ति दो निर्भय हो थारे गुण गाऊँ ।। जाते हैं एक नगर में वे जहाँ का हिमशीतल महाराजा । जहाँ बौद्धों जैनों का झगड़ा हो रहा उस समय था ताजा ।। हिमशीतल के दो रानी थी एक बौद्ध दूसरी थी जैनी । आपस में एक दूसरे की करती रहती नुकता - चीनी ॥

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