Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Author(s): Haribhai Songadh, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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आचार्य अकलंकदेव : संक्षिप्त परिचय
जैनागम चार अनुयोगों में विभक्त है
१. प्रथमानुयोग, २. करणानुयोग, ३. चरणानुयोग एवं ४. द्रव्यानुयोग।
द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत सिद्धान्त, अध्यात्म एवं न्यायविषयक ग्रन्थों का समावेश होता है।
सामान्यत: सिद्धान्त ग्रन्थों में षट्खण्डागम- धवला, महाधवला, जयधवला, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड; तत्त्वार्थसूत्र- तत्त्वार्थ राजवार्तिक, तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक आदि ग्रन्थ आते हैं। अध्यात्म ग्रन्थों में समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, नयचक्र आदि ग्रन्थ तथा आत्मख्याति, तत्त्वप्रदीपिका, तात्पर्यवृत्ति आदि टीकायें आती हैं। इसीप्रकार न्याय ग्रन्थों में आप्तमीमांसा (देवागम स्तोत्र)- अष्टशती, अष्टसहस्त्री, आप्तपरीक्षा, परीक्षामुख सूत्र, प्रमेयरत्नमाला, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायदीपिका आदि ग्रन्थ आते हैं।
मुख्यत: सिद्धान्त के प्रणेता आचार्यों में आचार्य धरसेन, भूतबली, पुष्पदन्त, वीरसेन, उमास्वामी, अकलंक, विद्यानन्दि आदि, अध्यात्म के प्रणेता आचार्यों में आचार्य कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र, जयसेन आदि तथा न्याय के प्रणेता आचार्यों में आचार्य समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्दि आदि का समावेश होता है।
इंसप्रकार हम देखते हैं कि सिद्धान्त एवं न्याय दोनों विद्याओं में आचार्य अकलंकदेव का समान रूप से अधिकार है। अध्यात्म के क्षेत्र में जो स्थान आत्मख्याति के रचनाकार आचार्य अमृतचन्द्र को प्राप्त है, वही स्थान सिद्धान्त एवं न्याय के क्षेत्र में आचार्य अकलंकदेव को प्राप्त है।
जिसप्रकार जैन अध्यात्म के द्वारा हम धर्म की प्रतिष्ठा स्व में